रात के 3 बजे।
क्लब की रौशनी अब बुझ चुकी थी —
सिर्फ दीवारों पर फैली हल्की पीली रोशनी अब भी थकी-सी टिकी थी।
मारिया जब क्लब के रूम में पहुँची, तो थकी हुई थी —
शायद थोड़ा उलझी भी।
डांस, मीर की नज़रें, हादी की बाँहें,
सब कुछ अब एक उलझी लड़ी जैसा लग रहा था।
जैसे ही उसने कपड़े बदले —
उसका मन अचानक चौक गया।
पीठ पीछे कुछ था —
न कोई आवाज़, न कोई आहट,
बस एक ठंडी सांस का एहसास… जैसे कोई पास खड़ा हो।
उसने झटके से पीछे देखा —
कोई नहीं।
फिर, जैसे ही वो दरवाज़े की ओर बढ़ी,
दरवाज़ा 'ठाक' से बंद हो गया।
"कौन है?"
उसकी आवाज़ काँप रही थी —
डर और गुस्से के बीच का फासला कुछ सेकंड्स का ही था।
"दरवाज़ा खोलो... किसने बंद किया है?"
और फिर —
दरवाज़े की रौशनी में एक परछाई आई।
हल्की… मगर स्पष्ट।
वो हादी था।
"त-तुम?"
मारिया की आवाज़ अब पूरी तरह सख़्त हो चुकी थी —
हैरानी और गुस्से का तूफ़ान उसमें उमड़ पड़ा।
हादी की आँखों में अब न वो कॉन्फिडेंस था, न मोहब्बत —
बल्कि कुछ और…
कुछ जो इंसान की शक्ल में नहीं होना चाहिए।
उसने झटके से मारिया का हाथ पकड़ने की कोशिश की,
मारिया पीछे हट गई —
"ये क्या बत्तमीज़ी है?!"
"छोड़े मुझे!"
वो चिल्लाई, इतनी ज़ोर से कि दीवारें काँपीं।
और तभी...
दरवाज़े पर एक ज़ोरदार धक्का पड़ा।
एक बार।
दो बार।
तीसरी बार दरवाज़ा टूट गया —
और मीर अंदर था।
आँखों में आग,
साँसों में तूफ़ान,
और चेहरा ऐसा जैसे खुद क़हर बनकर आया हो।
हादी एक पल के लिए पीछे हटा,
पर अहंकार अभी मरा नहीं था।
"ओह, हीरो आ गया?"
हादी ने तंज कसा,
"मारिया कोई चीज़ नहीं जो तू—"
"बस!"
मीर की आवाज़ कमरे में गूंज गई, जैसे बिजली कड़कती हो।
एक पल में ही उसका हाथ उठा और हादी की गर्दन पकड़कर दीवार से दे मारा।
"धड़ाम!"
हादी की पीठ दीवार से टकराई, मारिया हड़बड़ा कर एक कोने में सरक गई, लेकिन उसकी आँखें अब डर के साथ सुकून भी महसूस कर रही थीं।
"तेरी हिम्मत कैसे हुई...?"
मीर की साँसें तेज़,
हर शब्द में लोहे का वजन।
हादी ने छुड़ाने की कोशिश की —
मगर मीर अब इंसान नहीं रहा था —
वो उस पल एक इश्क़ में जलता हुआ बादशाह था।
"तू सोच भी कैसे सकता है
कि तुझे उसे हाथ भी लगाने दूँगा?"
मीर ने एक मुक्का मारा —
"धड़!"
हादी की नाक से खून बह निकला।
"ये मीर सुल्तान है, समझा?"
एक और घूंसा —
"और ये मेरी है...मीर सुल्तान की।
और अगर कोई मेरी चीज पर हाथ डाले
तो उसे ज़िंदा नहीं छोड़ता... अब तो ये मेरी मोहब्बत है!"
हादी अब बिखर चुका था —
घबराया, टूटा, और चुप।
मीर ने उसकी कॉलर पकड़कर कहा —
"अब भाग यहां से... वरना अपनी शक्ल खुद नहीं पहचान पाएगा।"
हादी दरवाज़े की तरफ़ भागा —
लड़खड़ाता हुआ,
पीछे देखे बिना।
कमरे में सन्नाटा था।
सिर्फ़ मीर और मारिया।
मीर ने गहरी साँस ली —
चेहरा पसीने और जुनून से भरा था,
मगर अब आँखों में एक नरमी थी।
"तुम ठीक हो?"
उसने धीरे से पूछा।
मारिया ने सिर हिलाया —
लेकिन उसके लब खामोश थे,
आँखें बोल रही थीं —
“आज कुछ बदल गया है…”
रात गहरा चुकी थी।
क्लब के बाहर ठंडी हवा चल रही थी,
लेकिन मीर के भीतर अब भी एक ज्वाला सुलग रही थी।
उसने धीमे से कहा —
"चलो, गाड़ी में बैठो।"
उसके लहजे में कोई सवाल नहीं था,
न कोई ज़बरदस्ती —
बस एक ऐसा हुक्म,
जिसमें फ़िक्र की चुप्पी थी।
मारिया बिना कुछ कहे,
धीरे से गाड़ी की दूसरी सीट पर आकर बैठ गई।
उसकी साँसें अब भी टूटी-टूटी थीं,
और दिल...
जैसे अभी भी उसी घड़ी के सदमे से लड़ रहा था।
गाड़ी सन्नाटा चीरती हुई आगे बढ़ने लगी।
सड़कें सुनसान थीं,
चाँद टुकड़ों में बादलों के पीछे छुपता जा रहा था।
कुछ दूर चलने के बाद,
मीर ने एक नज़र उसके चेहरे पर डाली —
फीकी, थकी हुई, मगर अब भी बेमिसाल।
उसने धीरे से पूछा —
"तुमने कुछ खाया?"
मारिया ने सिर हल्के से हिलाया — "नहीं।"
मीर ने कुछ नहीं कहा।
बस गाड़ी का रुख बदल दिया —
शहर की रौशनी पीछे छूटती गई,
और रास्ते सुनसान होते गए।
मारिया के भीतर डर का कोई नया बीज उगने लगा।
उसने घबराकर पूछा —
"आप कहाँ ले जा रहे हैं मुझे?"
मीर ने एक नज़र उस पर डाली —
उसकी आँखों में न कोई साज़िश थी,
न कोई हवस —
सिर्फ़ एक गहरी, ख़ामोशी मोहब्बत की आंच थी।
उसने बहुत नर्मी से कहा —
"भरोसा कर सकती हो मुझ पर...
हिफ़ाज़त से तुम्हे तुम्हारे घर छोड़ दूंगा।"
उसकी आवाज़ में वो यकीन था,
जो किसी दुआ की तरह उतरता है,
जैसे कोई वादा जो बिना मांगे भी निभा दिया जाए।
मारिया ने पहली बार ध्यान से मीर का चेहरा देखा —
सख्त जबड़े, भूरी आँखों में पिघली हुई बेचैनी,
और होठों पर एक अनकही कसक।
उसके ज़ेहन में मीर के कहे वो शब्द फिर से गूंज उठे:
"ये मेरी है... मीर सुल्तान की।"
अंदर ही अंदर कुछ टूट कर बहने लगा —
डर नहीं था अब,
बस एक अनजानी सी राहत थी,
जैसे किसी तुफान के बाद ठंडी बारिश गिरती हो।
बंगले का गेट खुला।
गाड़ी अंदर पहुँची।
मीर ने गाड़ी एक तरफ रोक दी —
और बिना कुछ बोले उतर गया।
उसने गाड़ी का दरवाज़ा खोला,
मारिया के लिए हाथ बढ़ाया।
"चलिए।"
अब मारिया के सामने दो रास्ते थे —
एक, जो डराता था।
दूसरा, जो खींचता था।
और उसने उस हाथ को थाम लिया —
क्योंकि कभी-कभी,
जो सबसे ज्यादा डराता है,
वो सबसे ज्यादा अपना भी होता है।
बंगले के भीतर...
गेट के भीतर कदम रखते ही,
एक अजीब सी शांति ने मारिया को घेर लिया।
जैसे इस जगह ने न जाने कितने सालों से किसी को छुआ ही न हो।
पुरानी लकड़ी की महक,
जैसे वक्त की तहों में दबा कोई किस्सा।
मीर ने हल्की आवाज़ में कहा —
"चलो अंदर।"
मारिया के कदम उसके पीछे-पीछे उठने लगे।
कमरे में बहुत हल्की रोशनी थी —
बस एक कोने में जलता पीला लैम्प,
जिसकी रौशनी में धूल के कण भी तैरते नज़र आ रहे थे।
मीर सीधा किचन की तरफ गया।
चुपचाप कुछ प्लेट्स निकालीं,
ब्रेड, जैम, और एक पुरानी वाइन की बोतल।
मारिया एक कोने में खड़ी उसे देख रही थी —
उस मीर को,
जिसकी आँखों में एक पागलपन था,
मगर उस पागलपन में भी एक नर्मी थी...
जैसे कोई टूटा हुआ फकीर अपने सबसे कीमती ख्वाब को बचाने की कोशिश कर रहा हो।
मीर ने प्लेट उसके सामने रख दी,
और पहली बार थोड़ी सी ज़बरदस्ती के साथ कहा:
"खाओ।"
मारिया कुछ पल उसे देखती रही —
फिर चुपचाप बैठ गई।
हर निवाला जैसे गले से उतरने से इंकार कर रहा था,
मगर मीर की खामोश नज़रों के सामने
ना कहना भी गुनाह सा लगता था।
खामोशी के दरमियान,
बारिश की कुछ बूँदें बाहर गिरने लगीं —
रात और भी गहरी, और भी तनहा हो गई थी।
मारिया ने हिम्मत कर के पूछा:
"ये बंगला... आपका है?"
मीर ने सिर झुका कर हल्की मुस्कान दी —
वो मुस्कान जो जख्मों की चादर में लिपटी थी।
"नहीं... पापा का है...!"
अचानक एक तेज़ गरज के साथ
बिजली चमकी —
कमरे में रोशनी का एक सफेद टुकड़ा उभरा,
और मारिया ने देखा —
मीर अब भी उसे देख रहा था।
न मोहब्बत से,
न ख्वाहिश से —
बल्कि एक ऐसे दर्द से,
जो सिर्फ़ अपनी चीज़ को टूटा हुआ देखने पर जागता है।
मीर ने धीरे से कहा:
"तुम डरो मत।
जब तक मैं ज़िंदा हूँ,
तुम्हें कोई छू भी नहीं सकता।"
उसकी आवाज़ में कसमों की खनक थी,
और हथेली में कोई अदृश्य तलवार थमी थी।
मारिया का दिल एक अनकही राहत से भीग गया।
उसने पहली बार खुद को कमजोर नहीं, महसूस किया।
मीर ने अपने जैकेट की जेब से एक पुरानी तस्वीर निकाली —
वही तस्वीर,
जिसे वह हर रात तकिये के नीचे रख कर सोता था।
मारिया की तस्वीर।
वो तस्वीर उसकी तरफ बढ़ाते हुए बमुश्किल फुसफुसाया:
"तुम मेरी बनना चाहोगी?।"
"मीर सुल्तान की मोहब्बत... बनकर साथ रहना चाहोगी?"
कमरे में सन्नाटा था —
सिर्फ़ बारिश की बूँदें थी,
और दो धड़कते दिल —
जो पहली बार एक ही ताल पर धड़कने लगे थे।
कमरे में अब भी हल्की पीली रौशनी तैर रही थी।
बारिश की बूँदें खिड़कियों से टकराकर एक उदास संगीत रच रही थीं।
मीर की हथेलियों में अब भी वो तस्वीर थी —
जिसे उसने जाने कितनी रातों की तन्हाई में सहलाया था।
वो कुछ देर तक चुपचाप तस्वीर को देखता रहा।
फिर आँखें उठाकर सीधे मारिया को देखा —
उस नज़ाकत को,
जिसके लिए वो हर ज़ख्म से लड़ने को तैयार था।
धीरे से,
जैसे अपनी ही साँसों से लड़ते हुए,
मीर बोला:
"मैं तुमसे मोहब्बत करता हूँ, मारिया।
बहुत शिद्दत से, बहुत बेसब्र मोहब्बत।
वो मोहब्बत जो सिर्फ दिल से नहीं...
रूह से की जाती है।"
उसके लफ्ज़ कमरे में गूंजे नहीं,
बस भीगते हुए उतरते चले गए —
मारिया की आँखों तक,
जहाँ हल्का सा कंपन था,
पर कोई जवाब नहीं था।
मीर ने उसे देखा —
उसकी खामोशी,
उसकी डरी हुई साँसें,
उसकी आँखों में दौड़ती उलझनें।
वो मुस्कुराया —
एक टूटी, बुझी हुई मुस्कान।
"जवाब मत दो अभी।"
उसने बहुत नरमी से कहा,
जैसे किसी नाजुक परिंदे को हाथों में थाम रखा हो।
"तुम्हें जो भी वक्त चाहिए, ले लो।
मैं इंतज़ार कर सकता हूँ।
मैंने उम्रें बर्बाद की हैं इंतज़ार में,
एक और सही।"
उसके लहजे में न शिकवा था,
न कोई तवक्को।
सिर्फ़ वो दीवानगी थी,
जो इश्क़ की सबसे पाक शक्ल होती है।
मारिया ने अपनी आँखें झुका लीं —
जैसे उसे डर था कि अगर उसने मीर की आँखों में ज्यादा देर देखा,
तो उसके सारे डर, सारी दीवारें ढह जाएँगी।
मीर कुछ पल उसे यूँ ही देखता रहा।
फिर चुपचाप गाड़ी की चाबी उठाई।
हल्के क़दमों से दरवाजे की तरफ बढ़ा।pp
मारिया भी चुपचाप उसके पीछे चली —
उसके कदमों की आहट इतनी हल्की थी
जैसे वो खुद से भी छुप रही हो।
गाड़ी में बैठते वक़्त भी,
दोनों के बीच बस ख़ामोश साँसों का सफर था।
ना कोई शब्द,
ना कोई वादा —
सिर्फ़ एक लटका हुआ, काँपता हुआ एहसास।
रास्ते भर मीर ने कुछ नहीं कहा।
उसके हाथ स्टेयरिंग पर थे,
मगर उसकी सोच कहीं और भटक रही थी —
शायद उन ख्वाबों में,
जहाँ वो और मारिया साथ थे।
घर के सामने गाड़ी रुकी।
मीर ने दरवाज़ा खोला।
मारिया उतरी —
धीमे क़दमों से।
दरवाजे के पास पहुँचते ही
मारिया ने एक बार पीछे मुड़कर देखा —
मीर वहीं बैठा था,
हथेलियों को भींचे,
एक उम्मीद और एक हार के बीच लटकता हुआ।
उसने बस इतना कहा:
"अपना ख्याल रखना..."
फिर बिना कुछ और सुने,
तेज़ी से पलट गई —
क्योंकि अगर एक पल और रुकती,
तो शायद खुद को खो बैठती।
मीर वहीं बैठा रहा —
उसके जाते क़दमों को देखता,
उन पर अपनी हर दुआ लुटाता।
रात अब और गहरी हो चुकी थी,
मगर मीर के दिल में अब भी एक दिया जल रहा था —
मारिया के 'हाँ' का इंतज़ार करते हुए।