Tu Hi Meri Aashiqui in Hindi Love Stories by Mystic Quill books and stories PDF | तू ही मेरी आशिकी - 6

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तू ही मेरी आशिकी - 6

कुछ दिन बाद…

मारिया अब बहुत कम बोलती थी, पर उसकी ख़ामोशियाँ बहुत कुछ कहने लगी थीं।

छोटे के साथ खेलते हुए भी,

नानी की कहानियाँ सुनते हुए भी,

उसके ज़हन में मीर का चेहरा बार-बार तैर जाता।


"तुम मेरी हो... मीर सुल्तान की..."

वो शब्द हर बार उसके भीतर कुछ हिला देते।


कभी किचन में चाय बनाते हुए वो मुस्कुरा देती,

फिर तुरंत खुद को टोकती,

"क्या हो गया है मुझे..."

और चेहरा दोनों हथेलियों में छुपा लेती।


उस रात चाँद कुछ ज़्यादा ही पास महसूस हो रहा था।

कमरे की खिड़की खुली थी,

मारिया वहीं बैठी थी —

गोदी में छोटे का सिर रखा हुआ,

उसकी मासूम सांसें एक सुकून दे रही थीं।


तभी —

एक नन्हा सा कंकर उसके सिर के पास आकर टकराया।

वो चौंकी।

नज़रें दौड़ाईं।


और फिर…

सामने —

नीचे गली के उस मोड़ पर,

मीर खड़ा था।


सिर्फ़ उसकी आँखें दिखाई दे रही थीं —

गहरी,

बेबाक,

और बेसब्र।


उसने इशारे से मारिया को नीचे बुलाया।


"नहीं मीर... ये पागलपन है..."

मारिया ने बहुत धीमे और डरे हुए इशारे से मना किया।


पर मीर रुकने वाला नहीं था।

उसने इशारे से पूछा —

"आऊँ ऊपर?"


मारिया की आँखें बड़ी हो गईं,

"नहीं... मीर... पागल मत बनो..."

पर मीर ने अपनी दीवानी मुस्कान के साथ

घर के पाइप को पकड़ लिया —

जैसे इश्क़ भी किसी दीवार से कम नहीं होता।


कुछ ही पलों में,

मीर उसकी खिड़की में था।


उसकी धड़कनों की आवाज़

अब सिर्फ़ दिल में नहीं,

कमरे की हवा में भी थी।


"तुम… पागल हो गए हो?"

मारिया ने फुसफुसाते हुए कहा —

डरी भी, मगर आँखों में एक चमक सी आ गई थी।


मीर ने उसके कंधे से हाथ हटाए बिना

धीरे से कहा:


"हाँ, तुम्हारे लिए पागल होना सीख लिया है अब…"


दोनों के बीच कुछ पल बिल्कुल ख़ामोश थे —

सिर्फ़ छोटे की धीमी सांसें,

और खिड़की के बाहर बजती हवा की सरसराहट।


मारिया अब भी चुप थी —

मगर इस बार उसकी चुप्पी में कोई डर नहीं था,

बल्कि एक नर्म सा यकीन था।


"बस एक बार तुम्हारी आँखों में खुद को देखना चाहता था..."

मीर ने धीरे से कहा,

"ताकि यकीन हो सके,

कि तुम भी अब थोड़ा सा महसूस करती हो..."


मारिया ने नजरें चुराईं —

मगर उसकी पलकों के नीचे तैरते जज़्बात

अब मीर से छुपे न थे।


वो सिर्फ़ मुस्कुराया —

और वहीं खिड़की के किनारे बैठ गया।

दोनों ने एक साथ चाँद की तरफ देखा —

वो चाँद, जो कभी अकेला था,

अब दो धड़कनों की गवाही बन चुका था।


कमरे में वो मुलायम खामोशी अब भी पसरी हुई थी...

मीर खिड़की के पास बैठा,

और मारिया थोड़ी दूरी पर,

छोटे को अपनी गोद में सँभाले हुए।


मीर ने हल्की मुस्कान के साथ उसे देखा,

वो मुस्कान जिसमें कोई जल्दबाज़ी नहीं थी,

सिर्फ़ एक इंतज़ार था —

सुकून भरा, मद्धम सा।


"जानती हो..."

मीर ने धीरे से कहा,

आवाज़ में ऐसा जादू था जैसे कोई पुराने राग की पहली तान।


"जब तुम चुप रहती हो ना,

तो तुम्हारी आँखें बोलती हैं।

और जब बोलती हो...

तो तुम्हारी खामोशियाँ चुपचाप मुस्कुरा देती हैं।"


मारिया का दिल हल्के से काँपा।

उसने फौरन नज़रें झुका लीं,

जैसे किसी ने उसकी सारी परतों को पढ़ लिया हो।


"मीर..."

वो फुसफुसाई,

"आपको यहाँ नहीं होना चाहिए..."


मीर हँसा,

एक गहरी, नर्म हँसी —

जो कहीं भीतर तक उतर गई।


"जहाँ तुम हो, वहीं मुझे होना चाहिए।

और वैसे भी..."

उसने हवा में हाथ फैलाया —

"तुम्हारा आसमान बहुत खूबसूरत है।"


मारिया ने सिर हिलाया,

थोड़ा झुँझलाकर,

थोड़ा मुस्कुराकर भी।


"आप... बहुत बातें बनाते हैं।"

उसने कहा।


मीर ने उसकी तरफ झुकते हुए,

बहुत धीमे से कहा:


"हाँ, बनानी पड़ती हैं,

जब किसी की मुस्कान का क़ैदी होना हो..."


मारिया की साँसें उलझने लगीं।

वो उठी, छोटे को संभालते हुए दूर जाने लगी,

मगर मीर की आवाज़ ने उसे थाम लिया:


"मारिया..."


वो रुकी।

पीछे मुड़ी नहीं,

मगर उसकी उंगलियाँ कस गईं छोटे के कंधे पर।


"डरो मत मुझसे।

मैं तुमसे कुछ लेने नहीं आया हूँ...

बस अपना दिल रखने आया हूँ।"


मारिया का दिल किसी टूटे हुए साज़ की तरह काँपा।

उसने खुद को बहुत मुश्किल से संभाला।

नज़रें बंद कीं।


मीर खामोशी से उसे देख रहा था।

उसके चेहरे पर कोई शरारत नहीं थी,

ना ही दीवानगी...

बस एक अजीब सी तलब —

एक मोहब्बत की जो हद से भी आगे निकल चुकी थी।


वो उठकर धीरे से मारिया के पास आया,

इतना पास कि उसकी सांसें मारिया की पलकों को छूने लगीं।


मारिया ने नज़रें उठाईं —

डर नहीं था उनमें,

मगर एक अजीब सी बेचैनी ज़रूर थी।


"अब आपको जाना चाहिए मीर..."

उसने बहुत नर्मी से कहा,

जैसे खुद से कह रही हो।


मगर मीर चुप रहा।

उसकी निगाहें छोटे पर टिकी थीं —

जो अब भी उसकी गोदी में सोया था।


फिर उसने बहुत धीरे, बहुत दिल से कहा:


"ये जो हक़ तुम्हारे आँचल में सोया है ना...

मैं बस वही माँगने आया हूँ, मारिया..."


उसके लहजे में ना कोई ज़ोर था,

ना कोई ज़िद…

बस एक ख़्वाहिश थी,

जो बरसों से दिल में दबाकर रखी गई हो।


"मैं भी चाहूँ कि कभी ये बच्चे की तरह मै भी तुम्हारी गोद में सोउ,

तुम्हारे आँचल की छाँव में,

तुम्हारी सांसों के आसपास..."


मारिया का दिल धक से रह गया।


वो पलटकर कुछ कहने ही वाली थी कि मीर ने अपना हाथ धीरे से छोटे के सिर पर रखा —

बहुत एहतियात से, जैसे कोई दुआ रख रहा हो।


"मोहब्बत करना आसान होता है,

मगर निभाना...

उसके लिए रूह का पूरा उतरना पड़ता है।

और मैं...

मैं अब तक बस डूबता ही आया हूँ,

तुम्हारे लिए..."


मारिया की आँखें नम होने लगीं।

वो उस दर्द और चाहत को महसूस कर रही थी

जिसे मीर ने कभी खुलकर कहा नहीं,

बस आँखों से बयां किया।


"मत दो जवाब आज..."

मीर ने आगे कहा —

"बस इतना जान लो,

कि इस चुप रात में

मैंने तुमसे तुम्हारा नाम नहीं,

तुम्हारा साथ माँगा है..."


इतना कहकर मीर उसके बहुत करीब आ गया।

उनके बीच अब सिर्फ़ छोटा था —

एक मासूम पुल,

जो मीर की मोहब्बत और मारिया की खामोश रज़ामंदी के बीच बिछा हुआ था।


मारिया ने कुछ नहीं कहा —सिर्फ़ मीर को देखा, एक लंबी, ठहरी हुई नज़र से।


"जाइए मीर..."

उसकी आवाज़ बहुत धीमी थी,

मगर अब उसमें डर नहीं,

बल्कि एक वादा था —

अनकहा, अधूरा, मगर मौजूद।


मीर ने उसकी आँखों में कुछ पढ़ लिया।

वो मुस्कुराया —

और इस बार सच में लौट गया।


लेकिन उसकी खुशबू —मारिया के कमरे में, उसकी साँसों में, उसके दिल में — वहीं रह गई।