Tu Hi Meri Aashiqui - 4 in Hindi Love Stories by Mystic Quill books and stories PDF | तू ही मेरी आशिकी - 4

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तू ही मेरी आशिकी - 4

दरगाह से लौटते हुए...

मारिया की रूह अब भी उस दरगाह की मिट्टी में अटकी थी। शहर की सड़कों पर गाड़ियों के हॉर्न, चेहरों की भीड़ और विज्ञापनों की चमक सब कुछ उस पर से फिसल रहा था — जैसे वो किसी और समय में चल रही हो। हवा उसके बालों में उलझती रही, और दिल में कुछ खुलता रहा, धीरे-धीरे।

क्लब के बैकस्टेज पर...

हवा यहाँ भारी थी — परफ्यूम, पसीने और एक्साइटमेंट से भरी हुई। साउंड चेक हो रहा था, स्पॉटलाइट्स की एंगल्स बदली जा रही थीं, किसी के हेडसेट में कमांड्स गूंज रहे थे।

“मारिया!”
जावेद भाई की आवाज़ आई — तेज़, मगर अब वो उसे किसी लहर सी लगी जो किनारा छूकर लौट जाती है।

उसने सिर्फ मुस्कुरा कर जवाब दिया — वो मुस्कान जो किसी के चेहरे पर न टिके, बस आत्मा के एक कोने में जलती रहे।

“आज आवाज़ से ज़्यादा, रूह गाएगी।”
उसके लफ़्ज़ नहीं, एक वादा थे — खुद से, उस ईश्वर से जिसे उसने अभी-अभी दरगाह पर पुकारा था।

ड्रेसिंग रूम के आईने के सामने...

वो खड़ी रही, कुछ नहीं बोला — सिर्फ अपने अक्स को देखा।
उसका चेहरा जैसे रेत पर बना कोई नक़्श — जो वक्त की हवा भी मिटा नहीं सकती।

नक़ाब की हल्की जालीदार चादर में छुपी आँखों का ग़म, जो उदास नहीं, बल्कि इश्क़ की सज़ा बयाँ करती थीं। माथे की चमकती पट्टी जैसे चाँद की पेशानी पर कोई दुआ हो, और बालों की चाँदी की मौरियाँ, जिनकी झंकार तानपुरे की तन्हाई जैसी गहरी और बेपरवाह थी। फिरोज़ी-नील लिबास में समंदर और आसमान का मिलन, हर झलक में चमकती कहानियाँ। कमरबंद की लय, जिसमें कदम कदम पर सितार की अनकही राग की गूंज हो, और झाँझरें जो उसके पैरों में नहीं, उसकी ज़िद में बसी थीं — रेत पर चलते हुए वो रुह सी लगती थी, जिसकी हर चाल इबादत बन चुकी थी।

क्लब का हॉल — रात के करीब 10 बजे।


सभी लाइट्स डिम हो चुकी थीं। एक नीली रोशनी, धुएँ सी फैली हुई... और स्टेज पर सिर्फ एक माइक।

हॉल में हलचल थी — ग्लासों की खनक, बातों की सरगोशियाँ, और उस रात की बेसब्री।

और तभी — वो आई।

मारिया...

नंगे पाँव, नीली धड़कती रोशनी में, जैसे रूह किसी साए की तरह उतर आई हो, हर नज़र उसकी तर्जुमानी में खो गई।

मीर भी उस समय अपने दोस्तों के साथ वीआईपी सेक्शन में बैठा था। हँसी-मज़ाक चल रहा था, पर जैसे ही उसकी नज़र स्टेज पर पड़ी — सब आवाज़ें एक पल में खामोश हो गईं।
उसकी आँखें फैल गईं, जैसे उसने किसी भूले हुए ख्वाब को सामने देख लिया हो।

वो देख रहा था उसी लड़की को —
जिससे पहली मुलाक़ात अँधेरे कमरे में हुई थी,
जिसकी झलकी उसे गाते वक़्त मिली थी "बहकता मेरा मन" के सुरों में,
जिसे गुंडों से बचाया था,
जो उसकी कार की अगली सीट पर बैठी थी — चुप, थकी और दुनिया से जूझती।
जिसने बस स्टॉप पर एक बार पलट कर “बाय” कहा था...

वो अब सामने थी।
मगर आज कोई और थी।

उसकी चाल में थकावट नहीं, तपस्या थी।
उसकी आँखों में डूब नहीं था, आग थी।
और उसकी आवाज़...
जब पहली बार उसने सुर छेड़ा,
मीर की साँस जैसे रुक गई।

वो अब नाचने या गाने नहीं जा रही थी — वो आज अपनी रूह से मिलने जा रही थी।
और जब कोई औरत रूह से मिले, तो उसकी चाल में दुआ और आवाज़ में आग उतरती है।

DJ ने बीट स्लो की —
और एक धीमा, मगर धड़कता हुआ ट्रैक शुरू हुआ...

"आज जाने की ज़िद न करो..."
(लेकिन इस बार एक इलेक्ट्रो-सलो जैज़ वर्जन में, जहाँ रीदम धीमी है, आवाज़ से ज़्यादा फील है)

उसने गाना शुरू किया —
आवाज़ में एक ठहराव, एक थरथराहट,
जैसे किसी ने दिल की दीवारों पर दस्तक दी हो।

"आज जाने की ज़िद न करो...
युहीं पहलु में बैठे रहो..."

गाना अभी शुरू ही हुआ था,
मगर वक्त थम चुका था।
मीर और मारिया की परछाइयाँ अब पूरी तरह जुड़ चुकी थीं —
दो जिस्म नहीं, एक राग हो गए थे।

"हाय मर जाएंगे, हम तो लुट जाएंगे
ऐसी बातें किया ना करो…"

मारिया ने अपनी आँखें झुका लीं,
उसकी पलकों की कम्पन मीर के सीने में गूंज रही थी।
उसने कुछ नहीं कहा, बस उसके दिल ने एक अजनबी सुकून से भर जाना शुरू किया।
जैसे ये क्षण कोई जन्मों पुरानी इंतज़ार की मंज़िल हो।

"वक़्त की कैद में ज़िन्दगी है मगर
चंद घड़ियां यही हैं जो आज़ाद हैं…"

मीर का चेहरा अब उसके इतने पास था,
कि वो उसकी सांसों में खुद को तलाशने लगा।
उसे लगा, ये वही घड़ियां हैं जिन्हें पूरी उम्र मांगने का दिल करे।

"इनको खो कर मेरी जानेजाँ
उम्र भर ना तरसते रहो…"

मीर ने धीरे से उसकी कमर को थामा,
और जैसे उसकी उंगलियाँ किसी धड़कती बात को छू गईं।
मारिया की गर्दन झुकी, पर हाथ उसकी कलाई पर कस गया —
जैसे कह रही हो: "मैं जाने नहीं दूँगी, पर बोलूँगी भी नहीं।"

"कितना मासूम, रंगीन है ये समां
हुस्न और इश्क़ की आज बैराग़ है…"

कमरा अब पूरी तरह धुंध से भर चुका था —
नीली रौशनी में वो दोनों किसी सुर और शब्द के बीच बहते जा रहे थे।

चारों ओर अब न कोई चेहरा था, न दीवारें।
बस गाना… और उनका साया।

"कल की किसको ख़बर जानेजाँ
रोक लो आज की रात को…"

मीर ने उसकी आँखों में झाँका —
वहाँ अब कोई पर्दा नहीं था।
बस एक खुला आकाश था, जिसमें उसके लिए ठहराव लिखा था।

मारिया ने उसकी हथेली को अपने गाल से लगाया,
और उस गाल पर एक आँसू की गरमी बाकी थी —
जो शायद उसने रोके रखा था, बस इस एक नज़दीकी के लिए।

"आज जाने की ज़िद ना करो…"

जैसे ही गाना अपनी आख़िरी लहर तक पहुँचा,
मीर ने खुद से कहा —
“अगर ये एक सपना है… तो मुझे इसी में दफ़्न कर दो।"
और मारिया की आँखें कह रही थीं —
"और अगर ये हकीकत है, तो कभी मत जाना…"

तालियों की एक लहर जैसे किसी झील पर पत्थर गिरा हो —
मीर की बंद आँखें हलकी-सी काँपीं।
धुन रुकी थी,
पर दिल अब भी उसी ताल पर धड़क रहा था।

“आज जाने की ज़िद ना करो…”
का आख़िरी सुर जैसे उसकी रूह में अटका रह गया था।

और फिर—

तालियाँ। ज़ोर की। बहुत सारी।
क्लब के लाइट्स अचानक थोड़ा तेज़ हुए,
फ्लोर पर लोग मुस्कुरा रहे थे, कोई सीटी बजा रहा था,
और किसी कोने से एक आवाज़ उभरी —
"एक और... कोई ऐसा गाना जो फिर से सबको उसी सुर में बहा दे!"

डीजे मुस्कुराया, एक हल्का इशारा किया…
और एक नया गाना शुरू हुआ।
पहला सुर ही था जैसे कोई मखमली स्पर्श —

“रात भर...
तेरी यादें मुझे
कभी चैन लेने ना दें...”

गाने के पहले ही सुर ने जैसे क्लब के माहौल को पलट दिया —
अब कोई शोर नहीं,
बस धीमा-सा गुलाबी अंधेरा, एक नया चेहरा —
सफेद शर्ट, स्लीक जैकेट, बाल हलके पीछे किए हुए,
आँखों में वो कॉन्फिडेंस था जो भीड़ में अकेला खड़ा रहे तो भी भीड़ बन जाए।

उसका नाम हादी था —
क्लब का नहीं, मगर मारिया की मुस्कान का हिस्सा बन चुका था।

मीर भीड़ में था, मगर भीड़ का हिस्सा नहीं।
वो एक कोने से उन्हें देख रहा था —
गिलास अब भी हाथ में था, मगर हाथ काँप रहा था।

गाना जब "तेरा नाम लूं जुबां से…" तक पहुंचा,
हादी ने हलके से मारिया की कमर को अपनी ओर खींचा —
कोई बेहूदगी नहीं,
बस वो अंदाज़ —
जो कहता है, "मैं जानता हूँ कि तू मेरी है।"

मारिया मुस्कुरा दी —
वो वाली मुस्कान जो मीर को ख्वाब में मिली थी।

मीर का दिल धड़का,
पर इस बार जैसे किसी और की ताल पर।

"तेरे सामने हर बार
क्यों बेबस सा लगता हूँ..."

मीर की आँखें अब नम नहीं थीं —
तेज़ थीं, जलती हुई।
उसने देखा,
हादी की उँगलियाँ मारिया की उँगलियों में उलझ रही थीं —
और वो उन्हें छुड़ाने की कोशिश नहीं कर रही थी।

वो डांस, जो मीर ने सिर्फ एक बार किया था,
अब कोई और दोहरा रहा था —
मारिया के साथ।

और तभी मारिया की नज़र मीर पर पड़ी —
उसने देखा,
पर कुछ कहा नहीं।
बस एक पल को उसकी आँखें जैसे बोलीं —
"कभी-कभी हकीकत भी ख्वाब से ज़्यादा जला देती है, मीर।"

मीर अब और नहीं देख सकता था।

गाना अब भी बज रहा था,
हादी की उंगलियाँ अब मारिया की पीठ पर थीं,
और मारिया की मुस्कान…
मीर के सीने में तीर की तरह धँस रही थी।

एक पल और…
फिर मीर ने अपनी साँस खींची,
गिलास टेबल पर रखा — इतनी जोर से नहीं कि कोई सुन ले,
बस इतनी ख़ामोशी से कि उसकी उखड़ी हुई साँसें गूंज उठीं।

उसकी आँखें अब नर्म नहीं थीं —
अब उनमें आँसू नहीं, आग थी।

बिना किसी को देखे,
बिना पीछे मुड़े,
मीर क्लब के उस भारी दरवाज़े से बाहर निकल गया।

बाहर की हवा ठंडी थी,
पर मीर के अंदर कुछ जल रहा था —
ऐसा कुछ जो न चीखा, न टूटा,
बस सुलगता रहा।

सिगरेट जलाई —
और पहली कस ली —
गहरा, धुआँदार, जैसे दिल की राख खींची हो।

फिर उसने फोन निकाला —
बहुत धीरे से,
जैसे किसी मरा हुआ ख्वाब फिर से सांस ले रहा हो।

स्क्रीन पर वो तस्वीर उभरी —
मारिया, उसकी आँखें, वो मुस्कान…
जो मीर के नाम की नहीं थी —
पर मीर की थी।

मीर ने उस तस्वीर को देखा —
देखते रहा…
और फिर सिगरेट का एक और कस भरा।

आँखों में अब आँसू नहीं थे।
अब सिर्फ़ दावा था।

और फिर —
धीरे से होंठों पर वो मुस्कुराहट आई —
वो नहीं जो किसी को दिखानी हो,
वो जो तब आती है जब दिल खून से लिखता है।

"तुम मेरी हो..."
उसने कहा — बहुत ठहरे हुए लहजे में,
"मीर सुल्तान की..."

सिगरेट की राख गिरी —
मगर वो खड़ा रहा, सीधा।
वो अब टूटा हुआ आशिक़ नहीं था —
वो इश्क़ में जलता बादशाह था।

अब सवाल ये नहीं है कि मीर क्या करेगा —
सवाल ये है कि कब करेगा।

क्योंकि जिस इश्क़ में अब दर्द नहीं,
बल्कि दावा हो —
वो कुछ भी कर सकता है।