सुबह की हल्की सी ठंडी हवा कमरे में घुसकर पर्दों को झकझोर रही थी, और सूरज की किरणें धीरे-धीरे खिड़की से अंदर आकर मारिया के चेहरे पर पड़ रही थीं। वह धीरे-धीरे अपनी आँखें खोलती है, आँखों में हल्की सी नींद और चेहरे पर रात की थकान। बिस्तर से उठते हुए उसने अपने बालों को झटकते हुए कमरे की ओर देखा। कमरे में सुकून था, कुछ पल पहले की घटनाएँ अब भी उसके मन में घूम रही थीं।
वह हमेशा से अपनी छोटी सी दुनिया में जीने वाली लड़की थी। घर में नानी की देखभाल, खुद का काम और फिर गाना — यही उसकी दुनिया थी। लेकिन अब कुछ बदला हुआ सा लग रहा था। मीर का चेहरा, उसकी मुस्कान, और वो पल जब उसने मदद की थी — ये सब अब उसकी ज़िन्दगी का हिस्सा बन चुके थे।
मारिया ने अपने बालों को सुलझाते हुए खिड़की के पास जाकर बाहर देखा। सुबह की ताजगी और नीला आकाश उसे कुछ अच्छा सा महसूस करवा रहा था। फिर, अचानक मीर की बातें, उसका चेहरा, उसकी वो नज़दीकी जो उसे अनजाने में ही महसूस हुई — ये सब उसकी सोच में घुस गए थे। उसके मन में अजीब सा तूफान था। क्या था वो पल? क्या मीर ने कुछ महसूस किया था? या फिर, वह सिर्फ एक सहारा था?
वह सोचते-सोचते फिर अपने कमरे में घुसी और नानी के लिए चाय बनाना शुरू किया। उसकी आदत थी कि हर सुबह नानी को गरम-गरम चाय देती थी, लेकिन आज कुछ अलग था, उसका मन कहीं और खोया हुआ था।
चाय बनाते हुए उसके जेहन में वही लम्हा ताजा हो गया, जब मीर ने कार में बैठते हुए कहा था, "मैं समझ सकता हूं, लेकिन ये मेरे लिए कोई बड़ी बात नहीं है।" और फिर, वह मुस्कुराते हुए पलट कर चला गया था। उसके चेहरे की गंभीरता, उसके शब्दों में छिपी नर्मी... सब कुछ उससे जुड़ा हुआ था।
मारिया ने चाय का कप उठाया और बाहर जाने से पहले एक गहरी सांस ली। उसके दिल में एक नई उम्मीद का ज्वाला जल रहा था। क्या मीर को फिर कभी देख पाएगी? क्या वह अपने दिल की बात उस तक पहुंचा पाएगी?
यह सुबह उसकी सोच और उसके अंदर चल रहे संघर्ष का आइना थी, जो उसे अपने आगे के रास्ते पर चलने के लिए तैयार कर रही थी, भले ही वह खुद को या मीर को पूरी तरह से नहीं समझ पा रही थी।
छोटे को यूनिफ़ॉर्म पहनाकर, बैग उसके कंधों पर टांग कर, मारिया ने बड़े सलीके से उसके माथे पर बोसा दिया।
"दुआ में याद रखना आज, हाँ?" उसने मुस्कराते हुए कहा, मगर आँखों में छुपी बेचैनी को छोटा नहीं पढ़ सका।
बस के जाते ही वो जल्दी-जल्दी अपने दुपट्टे को सँवारते हुए नानी की दवाइयों के लिए पास के मेडिकल स्टोर की तरफ़ रवाना हुई। रास्ते भर उसकी रफ्तार में एक बेआवाज़ सी जल्दी थी — जैसे वक़्त उससे छूट रहा हो।
मेडिकल स्टोर की दहलीज़ पर कदम ही रखा था कि सामने से नवाब साहब आते दिखे। सफ़ेद कुर्ता-पायजामा, सिर पर टोपी और हाथ में तस्बीह। चेहरे पर उम्र की रेखाएँ थीं, लेकिन लहजे में अब रहम नहीं, रुख़ाई थी।
"सलाम अलैकुम, नवाब साहब," मारिया ने अदब से कहा।
उन्होंने जवाब तो दिया, मगर नज़रें तल्ख़ थीं।
"वालेकुम अस्सलाम... लेकिन सलाम से किराया तो नहीं आ जाएगा, बीबी!" उनकी आवाज़ कड़वी थी, जैसे हर अल्फ़ाज़ तौल कर बोला हो।
मारिया ने नज़रें झुका लीं,
"वक़्त थोड़ा मुश्किल है, नवाब साहब। नानी की तबीयत भी खराब रहती है, ऊपर से छोटा... बस चंद दिन और मोहलत दे दीजिए, अल्लाह कसम, मैं कोशिश कर रही हूँ।"
"अल्लाह का नाम तो सब लेते हैं जब जेब ख़ाली होती है!" उन्होंने तस्बीह घुमाते हुए कहा,
"तीन महीने हो गए, बीबी। मोहलत मोहलत खेलते-खेलते मेरी सब्र की हद हो चुकी है। अगली तारीख़ तक अगर पूरा किराया नहीं आया, तो मैं अपने लड़कों को भेजूँगा — जो कुछ है तुम्हारा, गली में फिंकवा दूँगा।"
यह कहकर वो आगे बढ़ गए, मगर उनके लफ़्ज़ हवा में तलवार बनकर लटके रहे।
मारिया वहीं खड़ी रह गई, आँखों में नमी लिए हुए। एक तरफ़ दवा का पर्चा था, दूसरी तरफ़ दिल का बोझ। उसने आसमान की तरफ देखा — जैसे कोई मुनाजात थी दिल में, जो होंठों तक नहीं आई।
"या रब," उसने दिल में कहा,
"तू तो जानता है मेरी हालत... अब तेरा ही सहारा है।"
धूप अब ढलान की ओर थी, जैसे वक़्त भी थक कर किसी पेड़ की छांव में बैठ गया हो। घर में नानी आराम कर रही थीं — छाती पर दुपट्टा डाले, तस्बीह घुमा रही थीं और आंखें बंद करके कुछ बुदबुदा रही थीं। छोटे ने ज़िद की थी बाहर खेलने की, मगर मारिया ने प्यार से समझा दिया,
"बस दो घंटे की बात है, फिर हम आइसक्रीम भी लेंगे।"
अंदर से हलक सूख रहा था, मगर चेहरे पर वही सलीका। उसने दुपट्टा सलीके से ओढ़ा, आँखों में काजल की एक हल्की लकीर डाली — न सजावट के लिए, बस खुद को थोड़ा संभालने के लिए। एक तन्हा औरत जब ज़िम्मेदारियों के साये में बाहर निकलती है, तो उसका हर क़दम खुदा के भरोसे होता है।
रेस्टोरेंट में दाख़िल होते वक़्त उसके दिल ने गवाही दी —
"या रब, मेरे क़दम वहाँ न रुकें जहाँ मेरी रूह न टिके।"
वो जगह उसके लिए नई थी — दीवारों पर कीमती पेंटिंग्स, फ़र्श पर चमकते टाइल्स, और मेज़ों पर बैठे लोग जिनके कपड़ों की कीमत शायद उसके पूरे घर से ज़्यादा थी।
लेकिन उसकी चाल में ठहराव था, जैसे हर क़दम सोच-समझकर रखा हो। वह झुकी नज़रों और दिल में सजदे की सी अदब के साथ पहुँची उस टेबल तक, जहाँ जावेद भाई पहले से बैठे थे।
जावेद भाई — जिनकी नज़रों में सौदा भी होता है और साज़ भी। वो मुस्कराए, मगर उनकी मुस्कान में पुराना शहरीपन था, जो हर ख़ूबसूरत आवाज़ को साज बना देता है।
"आओ बैठो मारिया," उन्होंने मुस्कराकर कहा,
"तुम्हारी आवाज़ मैंने सुनी है... और सुनकर यही सोचा, आज की रात की रौनक तुम हो सकती हो।"
मारिया ने शाइस्तगी से जवाब दिया,
"बहुत शुक्रिया, लेकिन मैं सिर्फ गाती हूँ — बाकी कुछ नहीं करती।"
जावेद भाई हँसे,
"अरे हम तुम्हें गाने के लिए ही बुला रहे हैं, और तुम्हारी शर्तों पर। जो रकम तुम कहो, हम देंगे। आज रात एक बड़ी पार्टी है, कुछ 'ख़ास लोग' आ रहे हैं।"
उन्होंने एक मोटी रकम की पेशकश की — इतनी कि मारिया को तीन महीने का किराया और बाकी दवाइयाँ आराम से मिल जाएं। उसने कुछ पल सोचा... फिर हामी भर दी।
"ठीक है, लेकिन एक बात याद रखिएगा — मेरी इज़्ज़त मेरी आवाज़ के साथ जुड़ी है।"
जावेद भाई ने सिर झुकाकर कहा,
"उस पर कोई सवाल नहीं उठाएगा, मारिया बीबी।"
बैठक खत्म होते ही, मारिया बाहर आई। हल्की सी ठंडी हवा चल रही थी। उसने खुद को आईने में देखा — चेहरा वही था, मगर आज आँखों में एक अजनबी ताजगी थी। कोई बहुत बड़ा फैसला लिया था उसने — मजबूरी का नहीं, हिम्मत का।
रेस्टोरेंट के बाहर
मारिया बाहर निकली तो आसमान में बादल घिर आए थे। हवा में एक ठंडी सरसराहट थी, मगर उसके अंदर एक अजीब सी गर्मी उठ रही थी — जैसे कोई सोच भीतर ही भीतर जल रही हो, जैसे कोई सवाल जवाब मांग रहा हो।
पर्स की जिप खोलकर उसने जावेद भाई की दी हुई रकम गिनी। इतने पैसे उसने पहली बार हाथ में लिए थे, लेकिन उन नोटों में उसे न कोई राहत मिली, न ही कोई खुशी। सिर्फ एक बोझ... जैसे किसी ने उसकी हथेली पर आग रख दी हो।
उसकी उंगलियाँ काँप रही थीं — न जाने डर से, शर्म से, या अपने वजूद की चुप चीख़ से।
वो सड़क किनारे खड़ी रही कुछ पल... सामने एक माँ अपने बच्चे का हाथ थामे चली जा रही थी। माँ के चेहरे पर थकान थी, मगर बच्चे की मुस्कान में जन्नत का सुकून था। मारिया की आँखें भर आईं। एक टीस दिल में उठी —
"क्या मैं वाक़ई मजबूर हूँ? या बस अपने डर से हार रही हूँ?"
रेस्टोरेंट से कुछ कदम दूर एक पुरानी दरगाह थी — वहां से धीमे-धीमे सूफ़ियाना क़व्वालियों की गूंज आ रही थी और साथ ही अज़ान की सदा — दिल को छू लेने वाली।
उसने अनजाने में ही उस तरफ़ देखा, और फिर जैसे उसके क़दम अपने आप ही दरगाह की तरफ़ बढ़ गए।
चौखट पर पहुँचकर उसने झुककर अदब से सलाम किया,
"अस्सलामु अलैकुम, या पीरां... मेरे दिल की बात रब तक पहुँचा दो।"
वह दरगाह के एक कोने में बैठ गई — औरतों के लिए बने एक सादा से हिस्से में। सामने चिराग़ जल रहे थे, गुलाब की पंखुड़ियाँ बिखरी थीं, और दीवारों से एक पुरसुकून नूर टपक रहा था।
वो सिर झुकाकर बैठी रही, आँखें बंद कर लीं।
कोई दुआ ज़ुबान से न निकली, मगर दिल ख़ामोशी से अल्फ़ाज़ बुन रहा था।
"या अल्लाह...
तू गवाह है मेरी नियत का।
मैंने कभी किसी की रोटी नहीं छीनी, बस अपने घर की चूल्हा जलाने की कोशिश की है।
मेरे इम्तिहान को मेरी बेइज़्ज़ती न बना।
जो राह तूने खोलनी हो, उस पर मेरे क़दम मजबूती से रख देना।
अगर इस आवाज़ में वजूद है, तो इसे हया भी अता फ़रमा।"
कुछ देर वो वहीं बैठी रही, जैसे वक़्त रुक गया हो। आँखें भीग चुकी थीं, मगर दिल में एक अजीब सी ठंडक उतर आई थी — जैसे रूह को चादर ओढ़ा दी गई हो।
दरगाह के बाहर निकली, तो वो पहले से अलग महसूस कर रही थी। न रौशनी ज़्यादा थी, न अंधेरा कम — मगर उसके अंदर एक नई लौ जल चुकी थी।
रात का वादा अब नज़दीक था।
उसे क्लब जाना था — शोर, साज और सलीब के बीच अपनी आवाज़ को बचाए रखना था। उस भीड़ में गाना था, मगर खुद को भी ज़िंदा रखना था।
उसने खुद से कहा:
"इस बार ये सिर्फ एक काम नहीं — ये मेरी लड़ाई है।
और लड़ाई सिर्फ हिम्मत से नहीं, यकीन से भी जीती जाती है।"