[अंतिम बूँद: पृथ्वी का विलाप]
प्रेरणात्मक व भावनात्मक कथा — जल संरक्षण और जनसंख्या नियंत्रण पर आधारित)
(कृपया नीचे पूरी कहानी पढ़ें)
भूमिका
वर्ष 2095…
पृथ्वी अब वैसी नहीं रही जैसी सदियों पहले थी। न तो आसमान में बादलों की हलचल बची थी, न नदियों का कलकल बहाव, और न ही पेड़ों की वह हरियाली जो कभी धरती की शान हुआ करती थी। इंसानों की आबादी अब 68 अरब के पार जा चुकी थी। हर एक इंच जमीन पर मानो मनुष्य ने अपना डेरा जमा लिया था। पर इन सब के बीच कुछ चीज़ें पीछे छूट गई थीं — सबसे अहम, पानी।भाग 1 – भविष्य की दरारेंपृथ्वी पर अब पीने योग्य पानी केवल कुछ सीमित भंडारों में बचा था। इन्हें “जल-शेष क्षेत्र” कहा जाता था, और इनका संचालन सरकार नहीं, बल्कि वैश्विक जल निगम (Global Water Corporation - GWC) करती थी। पानी अब मुद्रा से कहीं अधिक मूल्यवान बन चुका था। एक गिलास पानी का मूल्य था — एक दिन की मज़दूरी।पर एक छोटा परिवार था — ‘आशा’, ‘नवीन’ और उनका पुत्र ‘संयम’। वे दिल्ली के बाहरी क्षेत्र में रहते थे, जहाँ कभी यमुना बहा करती थी, पर अब वहाँ केवल पत्थर और रेत थी। नवीन एक वैज्ञानिक था और उसने अपने जीवन का एकमात्र उद्देश्य बना लिया था — “पानी को फिर से धरती की नसों में बहते देखना।
”भाग 2 – पृथ्वी की पुकारनवीन जब प्रयोगशाला में कार्य करता, उसकी आठ वर्षीय पुत्र संयम एक कोने में बैठकर पृथ्वी के पुराने चित्र देखता। एक चित्र में उसने एक नदी देखी, जो पर्वतों से बहती हुई मैदानी इलाकों को सींचती थी। उसने पूछा, “पापा, क्या यह नदी सच्ची है?”नवीन ने आँखें मूँद लीं, कुछ पल चुप रहा और बोला, “हां बेटा, यह वही नदी है जिसे हमने लालच और लापरवाही से खो दिया।”आशा, जो कभी पर्यावरण कार्यकर्ता रही थी, ने उसे समझाया — “हमने जितनी जनसंख्या बढ़ाई, उतना ही धरती का बोझ बढ़ाया। हर नया जीवन अपने साथ पानी की माँग लेकर आता है, पर हमने कभी देना सीखा ही नहीं।”
भाग 3 – चेतावनीसंयम स्कूल में एक विशेष विषय पढ़ रहा था — “जल संरक्षण इतिहास”। वहाँ उन्हें सिखाया जाता कि कैसे 21वीं सदी की शुरुआत में ही वैज्ञानिक चेतावनी देते रहे, कि यदि जल बचाया न गया तो अगली सदी मानवता के लिए विनाशकारी होगी। पर कोई न सुनता। लोगों ने जल को केवल उपयोग की वस्तु समझा, पूजा का विषय नहीं।संयम की आँखों में भय था। उसने एक दिन अपने पिता से पूछा, “क्या हम भी एक दिन प्यास से मर जाएँगे?”नवीन ने मुस्कराकर कहा, “अगर हम अभी नहीं जागे तो वह दिन दूर नहीं…”
भाग 4 – ग्रीन चिप का आविष्कारनवीन ने अपने जीवन के 25 वर्ष एक प्रयोग में लगाए — ‘ग्रीन चिप’। यह एक विशेष चिप थी जो पौधों के जरिये हवा से नमी खींचकर उसे पीने योग्य जल में बदल सकती थी। पर चिप को सक्रिय करने के लिए ज़रूरत थी हर 1000 जनसंख्या पर कम से कम 1 पेड़ की।अब चुनौती थी — पेड़ कहाँ से लाएँ?
भाग 5 – नई क्रांतिसंयम ने स्कूल के बच्चों को एकत्र किया। उन्होंने जल और पेड़ों की अहमियत पर नुक्कड़ नाटक करना शुरू किया। उन्होंने एक आंदोलन शुरू किया — “एक बच्चा, एक पेड़”।धीरे-धीरे यह अभियान पूरे देश में फैल गया। बच्चों की मासूम अपील, उनकी आँखों में जलती आशा की चमक, लोगों के दिलों में चुभ गई। बुजुर्गों ने अपने खेतों में, महिलाओं ने अपने आँगन में और सैनिकों ने अपनी छावनियों में पेड़ लगाना शुरू किया।हर पेड़, ग्रीन चिप को एक जीवनदायिनी शक्ति देता।
भाग 6 – वैश्विक जागृतिसंयुक्त राष्ट्र ने भारत के इस अभियान को ‘Model of Hope’ कहा। अनेक देश जुड़ने लगे। अफ्रीका की रेगिस्तानी ज़मीन, ऑस्ट्रेलिया के सूखे प्रदेश, यहाँ तक कि अमेरिका के जल संकट वाले क्षेत्र — सभी जगह पेड़ लगाए जाने लगे। ग्रीन चिप तकनीक को वैश्विक मान्यता मिली।एक बार फिर नदियाँ बहने लगीं, छोटी छोटी धाराएं पर्वतों से उतरने लगीं।
भाग 7 – चेतना का पुनर्जन्मजनसंख्या नियंत्रण के लिए विश्व सरकार ने एक विशेष कानून बनाया: “हर नवजात के साथ दो पौधे लगाना अनिवार्य।” इससे जनसंख्या पर अंकुश लगा और हर जीवन के साथ धरती को कुछ लौटाया जाने लगा।नवीन अब 65 वर्ष का हो चुका था, पर उसकी आँखों में संतोष था। संयम अब एक युवा वैज्ञानिक बन चुका था। उसने घोषणा की: “अगर जनसंख्या और जल, दोनों पर नियंत्रण रखा जाए, तो पृथ्वी अमरत्व के मार्ग पर चलेगी।”
भाग 8 – अंतिम बूँदलेकिन कहानी यहीं समाप्त नहीं होती। एक दिन संयम को एक पत्र मिला — “2085 में एक और ग्रह पर सभ्यता थी, पर वहाँ भी पानी की उपेक्षा ने सब कुछ नष्ट कर दिया।” पत्र में लिखा था — “धरती अंतिम ग्रह है, जहाँ पानी अब भी बचा है, संभाल सको तो बचा लो, नहीं तो विलीन हो जाओगे।”संयम ने पत्र पढ़कर कहा — “धरती को अब और बहाना नहीं चाहिए, हर व्यक्ति को निर्णय लेना होगा — बचाना है या मिटाना है।”उपसंहारइस कहानी का कोई काल्पनिक अंत नहीं है, क्योंकि इसका अंत हम और आप ही तय करेंगे।पानी, वृक्ष और सीमित जनसंख्या — यही धरती का भविष्य हैं। यदि हम इन तीनों को समझें और अपनाएँ, तो आने वाली पीढ़ियाँ साँस ले सकेंगी, खिलखिला सकेंगी, नदियों के किनारे दौड़ सकेंगी।
पर यदि हमने अभी भी नहीं समझा…तो अगली पीढ़ियाँ केवल "अंतिम बूँद" की कथा पढ़ेंगी — एक विलुप्त सभ्यता की तरह।
[समाप्त]
लेखक:- शैलेश वर्मा