Goutam Buddh ki Prerak Kahaaniya - 6 in Hindi Short Stories by Anarchy Short Story books and stories PDF | गौतम बुद्ध की प्रेरक कहानियां - भाग 6

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गौतम बुद्ध की प्रेरक कहानियां - भाग 6

साधना की ओर

राजकुमार भ्रमण करते हुए मगध की राजधानी राजगृह के निकट पहुँचे। राजगृह के निकट पहाड़ की अनेक कंदराएँ थीं। सिद्धार्थ ने इन्हीं कंदराओं को अपना बसेरा बनाया। इन कंदराओं में एक मर्मज्ञ आचार्य आलाड़ साधनारत रहते थे। सिद्धार्थ ने आचार्य आलाड़ से ही साधना के गूढ़ रहस्य प्राप्त किए और उनके निर्देश पर ही तपश्चर्या में जुट गए। यहाँ पर उन्होंने कठोरतापूर्वक नियम-संयम का पालन करते हुए तपश्चर्या आरंभ कर दी। वे साधना में इतना रत हो जाते थे कि उन्हें अपने तन-मन की भी कोई सुध-बुध न रहती थी। इस कठोर साधन साधना से उनका बलिष्ठ शरीर धीरे-धीरे निर्बल होने लगा, किंतु उन्होंने अपनी तपश्चर्या जारी रखी, किंतु इतना कुछ होने पर भी उनके मन को तनिक भी शांति प्राप्त न हो सकी। इसके विपरीत, यहाँ उन्हें और भी अधिक उद्विग्नता ने घेर लिया।
            उस समय मगध का सम्राट् बिंबसार था। जब सम्राट् ने यह सुना कि कपिलवस्तु का राजकुमार राज-पाट त्याग पहाड़ों की कंदराओं में साधना कर रहा है तो उन्हें बड़ी उत्सुकता हुई कि उनके दर्शन किए जाएँ।
          एक दिन सम्राट् बिंबसार सिद्धार्थ के दर्शन करने वहाँ आ पहुँचा। सम्राट् ने सिद्धार्थ को देखा कि राजकुमार का शरीर बड़ा कोमल और सुंदर है। उन्हें सिद्धार्थ पर दया आने लगी। सिद्धार्थ को सम्राट् के आने का आभास मिला तो उन्होंने आँखें खोलकर उन्हें प्रणाम किया और वहाँ आने का कारण पूछा।
          सम्राट् बोले, "राजकुमार! इतने कोमल शरीर से इतनी कठोर साधना करना तो अपने ही शरीर पर अन्याय करना होगा। यदि राज्य-सुख की आवश्यकता है तो मेरे साथ महल में चलो।"

      "सम्म्राट्। यदि मैं राज्य सुख चाहता तो राजमहल का त्याग ही क्यों करता? मेरी इच्छा स्थायी सुख, स्थायी शांति प्राप्त करने की है।"

       "ठीक है कुमार! जब तुम अपने उद्देश्य में सफलता प्राप्त कर लो तो एक बार मुझे दर्शन देने अवश्य आना।" कहकर सम्राट् वहाँ से चले गए।

सिद्धार्थ से गौतम

आचार्य आलाड़ के निकट रहकर कठोर तपश्चर्या अपनाने पर भी सिद्धार्थ की उद्विग्नता घटने के बजाय बढ़ती चली गई तो उन्होंने वह स्थान छोड़ दिया। वहाँ से चलकर वे उस समय के सुप्रसिद्ध ऋषि अलारकालम के आश्रम में जा पहुँचे।

        इस आश्रम में नियम-संयम से तो रहना ही पड़ता था, इसके अलावा यहाँ अध्ययन-अध्यापन की भी विशेष सुविधा थी। इस आश्रम में रहते हुए सिद्धार्थ ने वेद, उपनिषद् और दर्शनशास्त्र का गहरा अध्ययन किया। यह प्राप्त करने पर भी उन्हें ऐसा प्रतीत होता था कि जैसे उनका मन अतृप्त है। अतः उन्होंने यह आश्रम भी छोड़ दिया। इसके बाद वे उदक रामपुत्र नामक ऋषि के आश्रम में जा पहुँचे। यहीं पर उन्हें गौतम नाम मिला। यहाँ सभी लोग इन्हें सिद्धार्थ की बजाय 'गौतम' नाम से संबोधित करते थे। यहाँ भी उन्हें शांति प्राप्त न हो सकी।

       अंततः वे उरुबेला नामक स्थान पर जा पहुँचे। यहाँ पर उनके साथ पाँच ब्रह्मचारी भी हो लिये। यहाँ उन्होंने छह वर्ष तक निराहार रहकर कठोर तपस्या की। इस तरह उनका शरीर हड्डियों का ढाँचा मात्र रह गया।
          कठोर निराहार तपश्चर्या से भी सिद्धि प्राप्त न हुई तो गौतम ने विचार किया कि इससे तो मृत्यु प्राप्त हो सकती है, किंतु सिद्धि कदापि नहीं।
         इसी बीच एक शूद्र ग्वाले की कन्या सुजाता ने एक मन्नत माँग रखी थी कि यदि उसे उसकी इच्छानुसार पति और पुत्र प्राप्त हुआ तो वह वन देवता के रूप में बरगद की पूजा करेगी। सुजाता की इच्छा पूर्ण हुई थी। अतः उसने अपनी मन्नत के अनुसार एक हजार गायों का दूध निकालकर सौ गायों को पिलाया और उन सी गायों का दूध निकालकर दस को और दस का दूध निकालकर एक गाय को पिलाया, फिर उस एक गाय के दूध की खीर बनाकर बरगद वृक्ष के निकट आई। वहाँ गौतम बैठे साधना कर रहे थे। सुजाता ने खीर गौतम के सामने रख दी। गौतम ने निस्संकोच होकर खीर का भोग लगाया।

      यह देखकर उनके निकट साधना कर रहे पाँचों ब्रह्मचारियों ने उन्हें भोग-लिप्त समझकर त्याग दिया। अल्प मात्रा में खीर को भोग लगाकर गौतम को संतुष्टि मिली और उन्होंने पुनः साधना आरंभ कर दी।

      खीर का भोग लगाकर जब गौतम का मन साधना में भली प्रकार रत न हुआ तो वे निरंजना (फल्यू) नदी के पास पीपल के वृक्ष के नीचे साधना में रत हो गए।
         साधना करते हुए उनका मन चंचल हो उठता था। उन्हें कभी अपने माता-पिता, कभी पत्नी-पुत्र तो कभी राजमहल आकर्षित करने लगते, किंतु उन्होंने संयम न छोड़ा। मन पर विजय प्राप्त करके वे ध्यान की पहली अवस्था तक जा पहुँचे। धीरे-धीरे उन्होंने ध्यान की चारों अवस्थाओं को प्राप्त कर लिया। अब भूत-भविष्य सभी उनके सामने चलचित्र के समान प्रकट होने लगे थे।

       उस समय रात्रि का तीसरा प्रहर चल रहा था। चारों ओर नीरव सन्नाटे का साम्राज्य था। उस गहन शांति के बीच गौतम को अपने अंतर में एक अनूठा प्रकाश जगमगाता प्रतीत हुआ। अनुपम ज्ञान की ज्योति उनके अंतर्मन को आलोकित करती प्रतीत हुई, तभी उन्हें शाश्वत सत्य के दर्शन हुए। उनके सारे संशय और भ्रम नष्ट हो गए और मन को असीम शांति प्राप्त हुई।