रात का सन्नाटा और बढ़ती बेचैनी
डिनर खत्म होने के बाद सुषमा मासी ने कहा, "अच्छा, अब तुम सब थोड़ा आराम कर लो। दिनभर बहुत कुछ हुआ है।"
सबने सहमति में सिर हिलाया। विशाल भी उठने ही वाला था, लेकिन तभी उसकी नजर खिड़की से बाहर पड़ी।
सड़क पर हल्का अंधेरा था। स्ट्रीट लाइट की रोशनी में सब कुछ शांत दिख रहा था, लेकिन उसे ऐसा महसूस हुआ जैसे कोई परछाई वहाँ मौजूद हो।
उसने ध्यान से देखा, लेकिन कुछ नहीं था।
"क्या यह मेरा भ्रम था?" उसने खुद से सवाल किया।
लेकिन उसके भीतर का जासूस कह रहा था—कुछ न कुछ गड़बड़ जरूर है।
अब वह और भी सतर्क हो गया था।
रात का एक और राज़
जैसे ही लड़कियाँ अपने कमरों में जाने लगीं, विशाल ने एक आखिरी बार उन तीनों की ओर देखा।
अवनी ने धीरे से कहा, "अगर हमें कुछ भी अजीब लगेगा, तो हम तुम्हें बताएंगे।"
विशाल ने सिर हिलाया, "ठीक है, लेकिन दरवाज़े बंद करके सोना। और कोई भी हलचल महसूस हो, तो तुरंत मुझे बताना।"
मिताली और लवली ने हामी भरी और धीरे-धीरे अपने कमरों की ओर चली गईं।
विशाल ने एक गहरी सांस ली और खिड़की के पास आकर खड़ा हो गया।
रात गहरी होती जा रही थी, लेकिन उसके लिए यह केस और भी गहरा होता जा रहा था।
क्या होने वाला था आगे?
उसकी नज़र एक बार फिर बाहर गई, लेकिन इस बार…
एक हल्की-सी परछाई सच में सड़क के कोने पर दिख रही थी।
विशाल के मन में अचानक अलार्म बज उठा।
"क्या कोई सच में हमारा पीछा कर रहा है?"
अब उसे सच सामने लाना ही था—हर हाल में।
रात का स्वाद और एक अनकही कहानी
सर्द हवा ने दरवाज़े को हल्के से धक्का दिया, और संजना ने अपनी शॉल को कसकर लपेट लिया। हर्षवर्धन पहले ही अंदर आ चुका था और सीधे रसोई की तरफ बढ़ गया था। रसोई से आ रही मसालों की खुशबू ने उसके कदम वहीं रोक दिए।
"तुम... तुम क्या कर रहे हो?" संजना ने दरवाजे से झांकते हुए पूछा।
"बिरयानी बना रहा हूँ," हर्षवर्धन ने जवाब दिया, जैसे यह कोई आम बात हो।
संजना ने एक पल के लिए सोचा कि शायद उसने गलत सुना है। "बिरयानी? तुम?"
हर्षवर्धन ने मुस्कुराते हुए उसकी तरफ देखा और फिर से मसालों को कड़ाही में हिलाने लगा। उसके हाथ सहजता से हल्दी, लाल मिर्च और गरम मसाले का मिश्रण तैयार कर रहे थे।
"हाँ, कोई समस्या?" उसने हल्की हंसी के साथ पूछा।
संजना अब तक हर्षवर्धन को सिर्फ गुस्से में, गंभीर या कभी-कभी मज़ाक करते देखा था। लेकिन यह नया रूप? यह आदमी जो इत्मीनान से प्याज़ भून रहा था, अदरक-लहसुन का पेस्ट डाल रहा था, और मटन को धीमी आंच पर पकने दे रहा था—यह तो कोई और ही था।
"मुझे तो पानी उबालना भी नहीं आता था!" संजना ने लगभग चिल्लाते हुए कहा।
हर्षवर्धन ने कहा ", अच्छा
संजना ने अपनी भौहें सिकोड़ीं। हर्षवर्धन हमेशा से रहस्यमयी था, लेकिन आज तो बात ही कुछ और थी। वह चुपचाप एक कुर्सी खींचकर वहीं बैठ गई और उसे गौर से देखने लगी।
"तुम इतने अच्छे से खाना बनाते हो?"
हर्षवर्धन ने हल्की मुस्कान के साथ जवाब दिया, "जब ज़रूरत पड़ती है, तो हाँ।"
"लेकिन क्यों?"
हर्षवर्धन ने एक पल के लिए हाथ रोका, फिर धीरे से जवाब दिया, "कुछ बातें बीते दिनों की ही अच्छी लगती हैं, संजना। हर कहानी जाननी ज़रूरी नहीं होती।"
उसकी आवाज़ में एक अजीब सा दर्द था। संजना ने महसूस किया कि यह वही लाइन थी जो उसने थोड़ी देर पहले भी कही थी, लेकिन इस बार इसके पीछे कुछ गहरा था।
संजना की जिज्ञासा और बढ़ गई। उसने कुर्सी पर और सहज होकर बैठते हुए पूछा, "फिर भी, कभी बताओगे?"
हर्षवर्धन ने कोई जवाब नहीं दिया, बस धीमी आंच पर बिरयानी पकने के लिए छोड़ दी। उसकी आँखों में हल्की चमक थी, लेकिन उसमें एक पुरानी परछाईं भी थी—एक ऐसी परछाईं, जिसे संजना अब समझना चाहती थी।