चेतावनी:
इस कहानी में अंधविश्वास के भयावह और अंधेरे रूपों को दर्शाया गया है, जो कुछ पाठकों के लिए मानसिक रूप से विचलित करने वाला हो सकता है। यदि आप संवेदनशील हृदय वाले हैं, तो कृपया सावधानीपूर्वक आगे पढ़ें। मेरा उद्देश्य किसी को डराना नहीं है, बल्कि समाज में फैले अंधविश्वास की क्रूर सच्चाई को उजागर करना है।
घने जंगलों के बीच बसा था सर्पपुर — नाम ही जैसे साँप की फुफकार हो। यह गाँव हर नक़्शे पर मौजूद था, बस सरकार के लिए नहीं। यहाँ न सड़कें थीं, न अस्पताल। लेकिन एक चीज़ हवा में घुली हुई थी — अंधविश्वास।
सर्पपुर का सबसे बड़ा डर था — "छाया"।
बूढ़े-बुज़ुर्ग कहते थे, “छाया” कोई औरत नहीं, एक श्राप है — जो हर तीसरे साल अमावस की रात गाँव में उतरती है। जब भी वह आती है, किसी माँ की कोख उजड़ती है, किसी का लहू सूख जाता है।
साल 2005, सावन का महीना था। बारिश बहुत ज़्यादा हो रही थी और गाँव की मिट्टी दलदल बन चुकी थी। उसी साल गाँव की चार औरतें गर्भवती थीं।
उनके पति – कुछ शराबी, कुछ बेरोज़गार। पर एक चीज़ जो सबमें समान थी – डर। "इस साल फिर छाया आएगी।"
गाँव के बुज़ुर्गों की पंचायत बुलाई गई। पंचों के चेहरे वैसे ही थे जैसे बरगद के तनों पर उगी फफूंद – पुराने, सड़े, लेकिन गाँव को जकड़े हुए।
पंचायत के बीच बैठा था ओझा बलवीरनाथ – गेरुए कपड़े, भभूत से सना चेहरा, गले में नींबू-मिर्च, और आँखों में पाखंड।
बलवीरनाथ बोला,
"अगर छाया को बलि नहीं दी गई, तो गाँव नष्ट हो जाएगा। जो बच्चा सबसे पहले जन्मेगा, वही छाया को समर्पित होगा। यही देवी का आदेश है।"
लोगों ने सिर झुका दिए। औरतों की रूह काँप उठी।
अनुष्का, गाँव की सबसे कम उम्र की गर्भवती लड़की थी – महज़ सोलह साल की। ब्याह ज़बरदस्ती हुआ था, और उसका पति उम्र में दुगुना और शराबी था।
सात महीने बाद, अनुष्का को असमय प्रसव पीड़ा हुई। बारिश की रात थी, बिजली चमक रही थी। न धाई, न दवा – सिर्फ़ एक पुराना खाट और ओझाओं की आवाज़ें।
बच्चा पैदा होते ही ओझा बलवीर पहुँच गया।
"इसकी साँस चल रही है, पर ज़्यादा देर नहीं। देवी की बलि पूरी होनी चाहिए।"
बच्चे को बाँस की टोकरी में रखकर गाँव के बाहर काली खोह ले जाया गया – वह जगह जहाँ आज तक कोई लौटकर नहीं आया।
अनुष्का चीखती रही, छटपटाती रही – खून से लथपथ। पर उसकी आवाज़ गाँव की दीवारों से टकराकर रह गई।
तीन दिन बाद, एक चमत्कार हुआ।
गाँव की एक बकरी, जो उस रात काली खोह के पास गई थी, पागल हो गई। उसके मुँह से खून बहने लगा, और उसकी आँखें सफेद हो गईं।
ओझा ने कहा –
"छाया संतुष्ट नहीं हुई। कोई अशुद्धता हुई है।"
इसके बाद गाँव में मौतों का सिलसिला शुरू हो गया।
पहले पंचायत का सबसे बूढ़ा सदस्य – उसकी आँखें खुली रह गईं, चेहरा ऐसा जैसे उसने कुछ भयावह देखा हो।
फिर दूसरा – उसकी खाट पर काले बालों का गुच्छा मिला और उसकी छाती फटी हुई थी।
तीसरा – खुद बलवीरनाथ का चेला, जो आधी रात को अपने ही खून में डूबा मिला।
गाँववालों ने समझा – छाया नाराज़ है।
बलवीर बोला,
"छाया को माँ चाहिए। बलि तो दे दी, पर माँ ने समर्पण नहीं किया। अनुष्का को शुद्ध करना होगा।"
शुद्धिकरण का अर्थ था – नरक की यातना।
अनुष्का को मंदिर लाया गया, निर्वस्त्र किया गया, भभूत से जलाया गया और उसकी पीठ पर लोहे की छड़ों से मंत्र दागे गए।
लेकिन उस रात अनुष्का की चीख नहीं निकली।
वह चुप रही। उसकी आँखें खाली थीं। फिर वह हँसने लगी – एक ऐसी हँसी, जिससे पत्थर भी पिघल जाए।
उस रात काली खोह से धुआँ उठा। और जब ओझा सुबह वहाँ पहुँचा, तो उसने देखी – बाँस की टोकरी, जिसमें बलवीरनाथ के चेले का कटा हुआ सिर रखा था।
गाँव में हाहाकार मच गया।
अब अनुष्का बदल चुकी थी।
उसकी चाल में कंपन था, आँखों में अंधेरा। लोग कहते थे – उसके भीतर छाया उतर आई है। पर सच्चाई कुछ और थी।
छाया कोई आत्मा नहीं थी।
छाया वह नफ़रत थी, वह क्रोध था, जो हर उस लड़की के भीतर पलता है जिसे अपवित्र कहकर बलि चढ़ाया गया।
अनुष्का ने एक-एक कर सबको खत्म किया।
पंचायत के सदस्य को कील ठोंककर।
बलवीरनाथ को ज़िंदा जलाकर।
और वे बुज़ुर्ग औरतें – जो चुप रहीं, उन्हें कुएँ में उल्टा लटका दिया गया।
यह मामला इतना फैल गया कि स्थानीय से लेकर राष्ट्रीय स्तर के अखबारों के पहले पन्नों पर छा गया।
बाद में पुलिस जाँच में पता चला कि इन घटनाओं के पीछे सावित्री और अनुष्का थीं। सावित्री भी अंधविश्वास की शिकार थी – उसका बच्चा भी बलि चढ़ाया गया था।
उन दोनों के साथ हुए अत्याचार ने उनकी मानसिक स्थिति को इस कदर तोड़ दिया कि उसका परिणाम पूरे गाँव को भुगतना पड़ा।
डॉक्टरों ने दोनों को मानसिक रूप से अस्वस्थ घोषित किया, लेकिन अदालत ने उन्हें मृत्युदंड सुनाया इसलिए नहीं कि उन्होंने अपराध किए थे बल्कि शायद इसलिए कि यही एकमात्र रास्ता बचा था जिससे उन्हें (सावित्री व अनुष्का) उन कष्टों से मुक्ति मिल सके जो उन्हें अंधविश्वास ने दिए थे।
इस मामले से जुड़े अन्य दोषियों को जो सावित्री व अनुष्का के प्रकोप से बच गए थे, जो अंधविश्वास के नाम पर कुकर्मों में शामिल थे – को आजीवन कारावास से लेकर फाँसी तक की सजा सुनाई गई।
यह शायद दुनिया का पहला ऐसा मामला था, जिसमें अदालत ने मृत्युदंड इसलिए दिया, क्योंकि इंसाफ के लिए और कोई रास्ता नहीं बचा था।
साल 2025
सर्पपुर अब वीरान है। दीवारों पर खून के धब्बे हैं, मंदिर के घंटे टूटे हुए हैं, और काली खोह से अब भी धुआँ उठता है।
पर कहते हैं – जब कोई लड़की “बलि” शब्द सुनती है, तो हवा में अनुष्का की हँसी तैरने लगती है।
अब छाया डर नहीं है – वह इंसाफ है।
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दोस्तों, विश्वास और अंधविश्वास के बीच एक बहुत ही महीन रेखा होती है, जिसे पार करना आसान है। लेकिन उसका परिणाम अक्सर बेबस और कमजोर लोगों को भुगतना पड़ता है।
इसलिए ज़रूरी है कि हम समाज में चल रही कुप्रथाओं और अंधविश्वासों को नज़रअंदाज़ न करें, बल्कि उनके खिलाफ आवाज़ उठाएँ।
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