वरुण ने आँखें बंद कीं, दिल की धड़कनों को शांत किया और मंत्र पढ़ना शुरू किया—
**"अग्नि तत्वे स्वाहा, प्रकाश पथ से मुक्त करो!"**
जैसे ही उसके शब्द कमरे में गूँजे, टॉर्च की रोशनी भड़क उठी और वरुण के चारों ओर एक सुनहरी ढाल बन गई। दीवारों से निकले काले हाथ ढाल से टकराते ही राख में बदलने लगे। परछाई के चेहरे पर पहली बार घबराहट दिखाई दी।
"तुम्हें रोकना होगा!" वह गरजा। उसकी आवाज़ से पूरा कमरा गूँज उठा। काले धुएँ ने एक विशाल प्राणी का रूप लिया—सैकड़ों हाथ, जली हुई आँखें और वहशी दाँत।
वरुण ने किताब को दोनों हाथों से थाम लिया। किताब भारी लग रही थी, जैसे किसी ने उसमें पूरे ब्रह्मांड का भार भर दिया हो।
प्राणी दहाड़ता हुआ वरुण की ओर झपटा।
वरुण ने मंत्र का अगला भाग पढ़ा:
**"तमसो मा ज्योतिर्गमय।"**
किताब से एक तेज़ सफेद प्रकाश फूटा। प्रकाश सीधा उस काले प्राणी पर जा गिरा। प्राणी दर्द से चिल्लाया, उसके शरीर से धुआँ निकलने लगा। कमरा बुरी तरह थरथराने लगा—दीवारों पर उकेरे गए चित्र जलने लगे, ज़मीन में दरारें पड़ गईं।
लेकिन प्राणी अभी भी हार मानने को तैयार नहीं था। वह टूटे हुए हाथों से वरुण की ओर बढ़ा, उसकी आँखों में भयानक नफ़रत थी।
तभी वरुण को याद आया—हवेली के पुराने शब्द: **"यदि प्रकाश पर्याप्त न हो, तो आत्मा को अपने भीतर की आग जलानी होगी।"**
वरुण ने गहरी साँस ली। उसने अपने भीतर झाँका—अपने डर, ग़लतियों और दर्द में। और वहीं उसे वह छोटी-सी चिंगारी मिली—आशा की।
उसने अपनी आँखें खोलीं, अपनी हथेली खोली, और फुसफुसाया:
**"मेरा भय ही मेरा अस्त्र है।"**
उसके शरीर से एक और भी तेज़ रोशनी निकली, इस बार सुनहरी और लाल रंग की। यह रोशनी सिर्फ किताब से नहीं, वरुण के भीतर से आ रही थी।
काला प्राणी चीखता हुआ पीछे हटने लगा। उसकी शक्ल बिखरने लगी। वह हवा में घुलने लगा, जैसे किसी ने उसे जला डाला हो।
आखिरी बार वह फुफकारा,
**"यह खत्म नहीं हुआ... वरुण..."**
और फिर हवा में गायब हो गया।
कमरा शांत हो गया। किताब अब सामान्य लग रही थी—पुरानी, जली हुई, लेकिन अब उस पर कोई काला धुआँ नहीं था।
वरुण ने उसे उठाया। जैसे ही उसने किताब को छुआ, उसके दिमाग में एक नया नक्शा उभर आया—किताब का अगला रहस्य। एक दूसरी जगह, एक और चुनौती।
लेकिन इस बार वरुण तैयार था।
वह सीढ़ियाँ चढ़कर ऊपर आया, खुले आसमान के नीचे। हवा अब हल्की और साफ़ लग रही थी। चाँदनी में कब्रिस्तान भी कम डरावना दिख रहा था।
वरुण ने आसमान की तरफ देखा और हल्के से मुस्कुराया।
वरुण ने कब्रिस्तान से बाहर कदम रखा तो हवा में कुछ अलग सी गंध थी—नम मिट्टी, पुराने फूल और हल्की सी गंधक की महक। दूर कहीं कोई मंदिर की घंटियाँ बज रही थीं।
किताब उसकी जेब में थी, और दिल में एक नया जोश।
नक्शा, जो उसके दिमाग में उभरा था, उसे दिल्ली के पुराने किले की ओर ले जा रहा था—*पुराना किला*, इतिहास में गुम एक रहस्यमयी जगह, जहाँ कहा जाता था कि समय के फाटल खुले रहते हैं।
वरुण ने बिना देर किए ऑटो पकड़ा।
ऑटो वाला एक बूढ़ा आदमी था, जिसकी आँखें गहरी और समझदार लग रही थीं। उसने वरुण की ओर देखा और मुस्कुराया।
**"किले तक? रात में?"**
**"हाँ,"** वरुण ने संक्षिप्त जवाब दिया।
रास्ते भर बूढ़ा आदमी बिना कुछ बोले ड्राइव करता रहा। मगर जैसे ही किला नजदीक आया, उसने अचानक कहा,
**"अगर रास्ता धुँधला लगे तो पीछे मुड़ कर मत देखना। वहाँ सिर्फ भूत नहीं, पछतावे भी घूमते हैं..."**
वरुण चौंका, लेकिन कुछ नहीं बोला।
ऑटो रुकते ही उसने पैसे दिए, मगर जब पीछे मुड़ कर देखा—ऑटो वाला और ऑटो दोनों गायब थे।
वरुण की रूह काँप गई, लेकिन उसने खुद को संभाला।
**"डर को रास्ता मत देना,"** उसने खुद से कहा।
पुराना किला रात के अँधेरे में और भी भूतिया लग रहा था। टूटी हुई दीवारें, काई जमीं सीढ़ियाँ और कहीं-कहीं उगी जंगली घास।
जैसे ही वरुण ने अंदर कदम रखा, किताब ने हल्की सी कंपन की।
एक फुसफुसाहट सी हवा में गूँजी:
**"जो खोजता है, उसे खोना भी पड़ता है..."**
किताब अपने आप खुल गई। पन्नों पर एक और मंत्र चमकने लगा:
**"समय का द्वार—दाएं घूमें, बाएं न देखें।"**
वरुण ने गहरी साँस ली और आगे बढ़ा।
किले के बीचों-बीच एक बड़ा, टूटा-फूटा दरवाज़ा था। दरवाज़े पर अजीब-सी नक्काशियाँ थीं—आधी इंसानी, आधी किसी और दुनिया की आकृतियाँ।
जैसे ही वरुण ने दरवाज़े के नज़दीक कदम रखा, ज़मीन हिलने लगी।
दरवाज़ा धीरे-धीरे खुद-ब-खुद खुलने लगा, भीतर एक गहरा अँधेरा दिख रहा था...
वरुण ने किताब को कसकर पकड़ा और बिना एक पल गँवाए अंदर प्रवेश कर गया।
अंदर घुसते ही उसे लगा जैसे वह समय के भीतर गिर रहा हो—
पुराने युगों की झलकियाँ, युद्धों की आवाजें, किसी के रोने की आवाज, और फिर एक शांति।
जब वह उठा, तो पाया कि वह एक दूसरी दुनिया में था।
एक उजड़ा हुआ, सुनसान नगर...
जहाँ समय जैसे ठहरा हुआ था।
और तभी उसकी नज़र सामने पड़ी—
एक विशाल पत्थर का सिंहासन, जिस पर बैठा था एक आदमी—
आधी देह इंसान की, आधी देह किसी राक्षस जैसी।
उसकी आँखें बंद थीं, पर किताब ने हल्का कंपन करना शुरू कर दिया।
**"तुम आ गए, वरुण..."**
आवाज़ सिंहासन पर बैठे उस प्राणी की थी, जिसने अब अपनी आँखें खोली थीं। उनमें समय का सारा बोझ समाया हुआ था।
continue...