Mukalkat - Ek Ankahi Dastaan - 5 in Hindi Love Stories by Aarti Garval books and stories PDF | मुलाक़ात - एक अनकही दास्तान - 5

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मुलाक़ात - एक अनकही दास्तान - 5

सूरज अपनी अंतिम किरणों को धरती पर बिखेरते हुए धीरे-धीरे क्षितिज की ओर ढल रहा था। जैसलमेर की सोनाली रेत पर पसरी वह शाम मानो किसी पुराने प्रेमगीत का अंतिम अंतरा हो, जिसमें हर साया एक कहानी कहता हो। गढ़ीसर झील के किनारे बहती ठंडी हवा, पानी की सतह को छूकर लौटती तो ऐसे लगती जैसे कोई खोई हुई याद हल्के से मन को सहला रही हो।

झील का पानी चाँदी की परत की तरह चमक रहा था, और उसके किनारे फैले बबूलों की छाया में सिहरन सी थी, जो मन के भीतर तक उतर रही थी। उस ठंडी सांझ में, संयोगिता झील के किनारे खड़ी, अपने भीतर उठते तूफ़ान को संयम से दबाने की कोशिश कर रही थी। उसका दुपट्टा उसके काँधों पर कस कर रखा हुआ था, मानो वह किसी टूटती उम्मीद को बचाए रखना चाहती हो।

उसकी आँखों में एक अनकही कहानी तैर रही थी—नज़रें झील की लहरों पर थीं, लेकिन मन कहीं और भटक रहा था। कुछ तो था, जो उसकी आत्मा को कचोट रहा था। एक ऐसा द्वंद्व, जिसे वह समझ भी नहीं पा रही थी, और शायद स्वीकार भी नहीं कर पा रही थी।

उसी पल, जैसे किसी अदृश्य आहट ने उसे सचेत कर दिया हो, उसने धीरे से अपनी पलकों को उठाया। सामने आदित्य खड़ा था—वही चेहरा, वही परिचित मुस्कान, लेकिन इस बार उसकी आँखों में कुछ और था। एक गहराई, एक खालीपन, और एक बेआवाज़ पुकार, जो संयोगिता के दिल तक पहुँच गई।

उसकी उपस्थिति ने जैसे वक़्त को कुछ पल के लिए रोक दिया। चारों ओर की हवा ठहर गई, झील की लहरें थम गईं, और संयोगिता का दिल ज़ोर से धड़कने लगा।

वह कुछ कहने ही वाली थी, लेकिन गले में फंसे शब्दों ने उसकी आवाज़ को रोक लिया। उसके होठ थरथराए, पर आवाज़ नहीं निकली।

आदित्य ने एक कदम आगे बढ़ते हुए धीमे स्वर में कहा, “तुमसे मिलकर ऐसा लगता है जैसे मैं अपनी अधूरी कहानी को फिर से जी रहा हूँ, संयोगिता।”

उसका यह वाक्य, सीधा दिल के उस कोने में उतर गया, जहाँ संयोगिता ने वर्षों से अपने भावों को बंद कर रखा था। उसकी आँखें भर आईं, लेकिन उसने खुद को संभाला। उसकी नज़रें आदित्य की ओर थीं, लेकिन उत्तर अब भी मौन में छिपा हुआ था।

यह एक पल, दो आत्माओं के बीच का था। वह पल जहाँ अतीत और वर्तमान एक-दूसरे से टकरा रहे थे, और भविष्य अब भी धुँधले साये में छिपा था।

"संयोगिता," उसने धीमे से कहा।संयोगिता ने कोई जवाब नहीं दिया।

वह बस झील की ओर देखती रही, मानो उसकी लहरें उसके मन के तूफान को शांत करने की कोशिश कर रही हों।

आदित्य ने आगे बढ़कर कहा, "कल जो हुआ, उसके बाद भी तुमने मुझे यहाँ बुलाया, इसका मतलब तुम भी मुझसे बात करना चाहती हो, है ना?

"संयोगिता ने उसकी ओर देखा। उसके होठों पर हल्की-सी मुस्कान आई, लेकिन उसकी आँखें भारी थीं।

"मैंने तुम्हें नहीं बुलाया, आदित्य। यह शायद महज़ एक संयोग है कि हम यहाँ मिल गए।"

आदित्य हल्का-सा हँसा, लेकिन उसके दिल में कसक थी।

"संयोग कभी-कभी ज़िंदगी के सबसे खूबसूरत फैसले बन जाते हैं, संयोगिता। और मैं चाहता हूँ कि यह संयोग हमें हमेशा के लिए जोड़ दे।"

संयोगिता ने गहरी सांस ली। वह जानती थी कि यह बातचीत आसान नहीं होगी।

"आदित्य, मैं तुमसे पहले ही कह चुकी हूँ—यह सब मुमकिन नहीं है।

"आदित्य एक कदम आगे बढ़ा।

"क्या मुमकिन नहीं है, संयोगिता? प्यार करना? या अपने दिल की सुनना?"

संयोगिता ने धीरे से कहा, "प्यार करने से कुछ नहीं बदलता, आदित्य। मैं तुम्हें चाहती हूँ, लेकिन यह चाहत किसी को खुश नहीं करेगी—ना मेरे परिवार को, ना समाज को, और शायद ना ही मुझे।"आदित्य के चेहरे पर दर्द की लकीरें उभर आईं।

"संयोगिता, प्यार कोई अपराध नहीं होता, जिसे छुपाना पड़े। मैं तुमसे शादी करना चाहता हूँ, तुम्हारे साथ अपनी ज़िंदगी बिताना चाहता हूँ। लेकिन तुम खुद से भाग रही हो। आखिर क्यों?"

संयोगिता ने अपनी मुट्ठियाँ भींच लीं। उसकी आँखों में आंसू थे, लेकिन उसने खुद को कमजोर नहीं पड़ने दिया।"क्योंकि मुझे अपना कर्तव्य निभाना है, आदित्य। मेरे माता-पिता ने जो सपने देखे हैं, मैं उन्हें तोड़ नहीं सकती। मैं एक ऐसी लड़की नहीं हूँ, जो सिर्फ अपनी खुशी के लिए अपनों को तकलीफ दे।"

आदित्य गहरी सांस लेकर रह गया। उसने उसके दर्द को समझा, लेकिन उसे स्वीकार करना उसके लिए आसान नहीं था।

"तो क्या तुम्हारी खुशी की कोई कीमत नहीं है, संयोगिता?"

संयोगिता ने उसे देखा, फिर धीरे से कहा, "कभी-कभी अपनी खुशी की कीमत दूसरों की खुशी से ज्यादा होती है।"

आदित्य चुप हो गया। उसके पास कोई जवाब नहीं था। झील की लहरों की हल्की आवाज़ अब और गहरी लग रही थी।संयोगिता बिना कुछ कहे मुड़कर जाने लगी। लेकिन जाते-जाते उसकी आँखों में एक अधूरा वादा था—जो शायद कभी पूरा नहीं हो सकता था।