जैसलमेर की हवाएं उस दिन कुछ ज़्यादा ही उदास थीं। जैसे रेत के कणों में भी एक दर्द समाया हो, और हवाओं में एक बिछड़ते लम्हे की गूँज हो।
आदित्य ने सुबह उठते ही फैसला कर लिया था—अब और नहीं। जितना वो संयोगिता को समझने की कोशिश करता, उतना ही उलझता चला जाता। और अब, उसे खुद को बचाना था।
"शायद प्यार सिर्फ पाने का नाम नहीं होता..." उसने खुद से कहा था।
लेकिन जाने से पहले वो एक बार और उससे मिलना चाहता था—बस एक आख़िरी बार। न कोई शिकायत, न कोई उम्मीद। सिर्फ एक विदा, जो बिना कहे अधूरी लगती।
शाम ढलने को थी। सूरज धीरे-धीरे रेत के समंदर में डूब रहा था। वही घाट, वही पुराना मंदिर, और वही संयोगिता... एक बार फिर, समय ने उन्हें आमने-सामने ला खड़ा किया था।
संयोगिता शांत खड़ी थी, जैसे उसे पहले से ही सब पता हो। आदित्य ने धीरे-धीरे कदम बढ़ाए।
"संयोगिता..." उसकी आवाज़ में पहले जैसी मिठास नहीं थी, लेकिन वो अपनापन अब भी बाकी था।
वह मुड़ी, और उसकी आँखों में वही उलझन थी, जो हर बार आदित्य को बेचैन कर जाती थी।
"तुम फिर आए?" उसने धीमे से पूछा।
"हाँ," आदित्य ने सिर हिलाया, "इस बार विदा लेने आया हूँ।"
संयोगिता का दिल धड़क उठा। उसने कभी नहीं सोचा था कि यह विदाई इतनी जल्दी उसके सामने खड़ी होगी।
"कब जा रहे हो?"
"कल सुबह।"
कुछ पल दोनों के बीच खामोशी छा गई। हवा ने दोनों के बीच की दूरी को और भी भारी बना दिया।
"मैं जानता हूँ, तुम्हारा फैसला बदलने वाला नहीं है। और मैं अब तुम्हें और उलझाना नहीं चाहता। लेकिन एक बात कहना चाहता हूँ..."
संयोगिता ने कुछ नहीं कहा, बस उसकी ओर देखने लगी।
"तुम्हें चाहना मेरे लिए एक blessing की तरह था। तुमने मुझे वो एहसास दिया, जो शायद मैं अपने लेखों में ढूँढता था। और शायद मैं कभी तुम्हें पूरी तरह समझ नहीं पाया... पर इतना जानता हूँ कि तुम्हारी खामोशी में भी एक गहराई है।"
संयोगिता की आँखें भर आईं, लेकिन वह कुछ नहीं बोली।
"मैं जा रहा हूँ, लेकिन तुम्हारी यादें मेरी कहानियों में जिंदा रहेंगी। और अगर कभी तुम्हें अपनी कहानियों का कोई किरदार ढूँढना हो, तो शायद मेरी किताबों में तुम मुझे पा सको।"
संयोगिता का गला रूंध गया।
"आदित्य..."
उसने धीरे से कहा, पर उसके शब्द वहीं अटक गए।
"कुछ नहीं कहो, संयोगिता।" आदित्य ने हल्की-सी मुस्कान दी, "कभी-कभी खामोशियाँ भी अलविदा कह देती हैं।"
उसने अपना बैग उठाया और कुछ कदम पीछे हटने लगा। लेकिन तभी संयोगिता ने उसका हाथ पकड़ लिया।
"क्या हम सच में कुछ नहीं बदल सकते?"
आदित्य ठिठक गया।
"अब तुम यह सवाल कर रही हो, जब मैं विदा कहने आया हूँ?"
संयोगिता की आँखों से आँसू बहने लगे।
"मैं खुद से नहीं लड़ पाई, आदित्य। लेकिन तुमसे दूर होकर भी खुद से कैसे रहूँगी?"
आदित्य ने कुछ पल उसकी आँखों में देखा, जैसे उन गहराइयों में अपना अंतिम संदेश दर्ज करना चाहता हो। फिर हल्की मुस्कान के साथ, बेहद धीमे स्वर में बोला—
"अगर कभी खुद से जीत जाओ... अगर अपने डर, समाज और उस खामोशी से पार पा लो—तो मुझे ढूँढ लेना। मैं कहीं नहीं जाऊँगा... मैं यहीं रहूँगा, तुम्हारे आसपास... हवाओं में, उन कहानियों में, जो लोग सुना नहीं पाते।"
उसके शब्दों में कोई आग्रह नहीं था, कोई शिकायत नहीं, बस एक शांत स्वीकृति थी—एक प्रेम जो बाँधना नहीं चाहता था, बस बना रहना चाहता था।
फिर वह धीरे-धीरे मुड़ा और उस संध्या के सन्नाटे में खोता चला गया।
संयोगिता वहीं खड़ी रही। उसकी आँखों में एक अधूरी दुआ ठहरी थी—नमी से भरी, लेकिन गिरने से इनकार करती हुई। हवा उसकी ओढ़नी से खेल रही थी, मानो उसकी मौन प्रार्थना को उठा ले जाना चाहती हो, कहीं उस तक... जो अब दूर जा रहा था।
झील की लहरें फिर से हिलने लगीं, लेकिन संयोगिता के भीतर एक सन्नाटा गूंज रहा था—एक ऐसा सन्नाटा, जो कभी पूरी तरह से टूटेगा नहीं।