गरिमा को इस तरह घर के एकदम सादे कपड़ों में देखकर वसुधा और बाक़ी सब लोग सिवाय हर्ष के हैरान हो गए। इस समय गरिमा के चेहरे पर ना कोई मेकअप था, ना ही कोई सुंदर वेशभूषा। सादे कपड़ों में भी वह उतनी ही सुंदर लग रही थी। हर्ष बिना मेकअप में गरिमा को देखता ही रह गया। वह अपने मुंह से कुछ भी ना कह पाया। लेकिन उसके चेहरे के हाव-भाव, उसकी आंखें यह बता रही थीं कि वह बहुत खुश है।
तभी गरिमा ने उसकी तरफ़ देखा तो हर्ष के चेहरे पर वह भाव दिखाई देने लगे। मानो वह कह रहा हो, वाह गरिमा तुम तो ग़ज़ब की खूबसूरत हो; वाकई तुम्हें तो मेकअप की ज़रूरत ही नहीं है।
इसी बीच वसुधा ने कहा, "गरिमा यह क्या बेटा? तुमने कपड़े क्यों बदल लिए?"
गरिमा ने मुस्कुरा कर हर्ष की तरफ़ देखते हुए कहा, "मम्मा मुझे साड़ी में बहुत बेचैनी हो रही थी। गर्मी भी लग रही थी।"
वसुधा को उसकी बात में कुछ भी सच्चाई नज़र नहीं आई तो उन्होंने कहा, "तुम आजकल के बच्चे भी ना ...!"
उसके बाद खाने की टेबल पर बात करते समय विमल ने हर्ष से सबके सामने पूछ लिया, "हर्ष तुझे लड़की पसंद है ना?"
क्योंकि इस प्रश्न का उत्तर वह पहले से ही जानते थे। वह समझ गए थे कि हर्ष को गरिमा पसंद है। वह जानते थे कि इससे पहले हर्ष ने कभी भी अकेले में बात करने वाली बात नहीं कही थी।
हर्ष ने कहा, "हाँ पापा।"
विमल ने गरिमा से भी वही प्रश्न पूछ लिया, "गरिमा बेटा, क्या तुम्हें हर्ष पसंद है?"
गरिमा शरमा गई उसने नीचे सर झुका लिया। इस समय वह मुस्कुरा रही थी और उसकी मुस्कुराहट में ही उसकी रजा मंदी समाई हुई थी।
बस फिर क्या था सब समझ गए और दोनों की शादी उसी समय तय हो गई। दोनों ही परिवार संपन्न थे इसलिए काफ़ी ज़ोर शोर से तैयारियाँ चल रही थीं। गरिमा के शादी के दौरान पहनने वाले कपड़ों का हर्ष द्वारा काफ़ी ध्यान रखा गया था।
वह बार-बार गरिमा को समझाता, "गरिमा कपड़े बहुत ही शानदार होने चाहिए। तुम बिल्कुल लाइट मेकअप करवाना। अच्छा, एक ड्रेस गुलाबी रंग की ज़रूर पहनना। वह रंग तुम पर ख़ूब खिलता है।"
गरिमा दंग थी। उसे लग रहा था, बाप रे बाप यह हर्ष कितना अजीब है। अच्छा दिखना उसके लिए कितना महत्त्वपूर्ण है। लेकिन इसमें बुराई ही क्या है? कोई ग़लत बात तो वह नहीं बोल रहा है।
यही सोचते हुए गरिमा ने कहा, "हाँ बाबा मैं एकदम लाइट मेकअप करुँगी और कपड़े भी तुम्हारी पसंद के ही पहनूँगी, तुम बेफिक्र रहो।"
हर्ष की चाहत को ध्यान में रखते हुए गरिमा ने बहुत ही सुंदर कपड़े खरीदे। दोनों के विवाह का दिन भी धीरे-धीरे आ ही गया।
हर्ष ने दुल्हन के रूप में जब पहली बार गरिमा को देखा, हल्का गुलाबी रंग का लहंगा, जिसमें चाँदी जैसी चमकदार बूटियाँ थीं, वह उसे देखता ही रह गया। वह अपनी पसंद पर बहुत खुश था। उसे जैसी चाहिए थी वैसी पत्नी मिल रही थी। बड़े ही धूमधाम के साथ उनका विवाह संपन्न हो गया। दोनों परिवारों की ख़ुशी का ठिकाना नहीं था।
विवाह के बाद आई विदाई की बेला, जिसने पूरे माहौल को ग़मगीन कर दिया था। सभी की आंखों में आंसू छलक रहे थे। सूना आँगन होने का दर्द माता-पिता को रुला रहा था। अपने बचपन का घर छोड़ कर जाना हर बेटी के लिए ऐसी घड़ी होती है जब उसके मन में लाखों प्रश्न उमड़ घुमड़ करते रहते हैं। कैसे रहूंगी अपने माता-पिता को छोड़ कर? कैसा होगा ससुराल का वातावरण और कैसे होंगे उसके सास-ससुर? माँ की तरह अब उसके नाज़ नखरे कौन उठाएगा और पापा की तरह हर फरमाइश कौन पूरी करेगा? कभी बचपन की यादों में खोकर वह तितली की तरह घर में यहाँ से वहाँ फुदकती ख़ुद को देखती, कभी रूठती तो माँ लाड़ लड़ाने चली आती। लेकिन इस सब के बाद भी बेटी को इस नई चुनौती को स्वीकार कर अपने परिवार से विदा लेनी पड़ती है जहाँ दूसरा परिवार उसके इंतज़ार में गृह प्रवेश की तैयारियाँ कर रहा होता है।
रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
क्रमशः