बसंत बहार
मालिनी ने कॅलबेल बजाई। वह बाहर गई थी। दस दिन बाद वह कल लौटकर आई थी। सरला ने दरवाज़ा खोला। उसने कहा,
"नमस्ते दीदी। बहुत दिनों के बाद आईं।"
मालिनी अंदर आकर सोफे पर बैठ गई। अपना हैंड बैग टेबल पर रख कर बोली,
"हाँ घर जाना पड़ा। मम्मी की तबीयत ठीक नहीं थी।"
"अब कैसी हैं वो ?"
"ठीक हैं। तभी तो वापस आई हूँ।"
सरिता ने उसे पानी लाकर दिया। पानी पीकर मालिनी ने पूछा,
"मैम के क्या हाल हैं ?"
सरिता ने उदास होकर कहा,
"वैसी ही हैं। दिन भर गुमसुम सी बैठी रहती हैं। मैं जबरदस्ती करके कुछ खिला देती हूँ। वरना आजकल तो उन्होंने खाना भी छोड़ दिया है।"
"अभी कहाँ हैं ?
"अपने कमरे में हैं।"
मालिनी कमरे में गई। रागिनी खिड़की पर खड़ी बैकयार्ड में लगे पलाश के पेड़ के नीचे बने चबूतरे को निहार रही थीं। मालिनी ने एक नज़र कमरे में दौड़ाई। वहाँ की हर शय जैसे उदास सी खामोशी का लबादा ओढ़े थी।
मालिनी की आँखें नम हो गईं। वह बिना कुछ बोले चुपचाप कमरे से निकल गई।
यह कला का मंदिर था जो अपनी कला के क्षेत्र में माहिर दो कलाकारों का आशियाना था। संगीतकार गंधर्व और कथक नृत्यांगना रागिनी अपनी कला के पुष्प चढ़ा कर यहाँ उपासना करते थे। हर वक्त संगीत की लहरियां इस घर के कोने कोने को गुंजायमान रखती थीं। ऐसा लगता था कि जीवन अपनी सजीवता के साथ यहीं आ बसा है।
पर अब यहाँ सिर्फ एक दमघोंटू उदासी थी। इसका कारण वह घटना थी जिसने देखते ही देखते गंधर्व को रागिनी से जुदा कर दिया था।
गंधर्व और रागिनी की शादी की पैंतीसवीं सालगिरह थी। हर बार की तरह उन्होंने एक दूसरे को मुबारकबाद दी। उसके बाद पास के एक अनाथालय में जाकर बच्चों को मिठाई बांटी। उनके साथ मौज मस्ती की।
उन दोनों की अपनी कोई संतान नहीं थी। पर इसका उन्हें कोई मलाल नहीं था। हर शुभ अवसर पर वह इन बच्चों के साथ आकर उनके साथ अपनी खुशी बांटते थे।
दोपहर को जब घर लौटे तो सरला लंच की तैयारी कर रही थी। मालिनी उसका हाथ बंटा रही थी। रागिनी भी किचन में पहुँच गईं। पर गंधर्व एक अलग ही मूड में थे। उन्होंने तीनों को किचन से बाहर कर दिया। ऐप्रेन पहन कर खुद खाना बनाने लगे। वो किसी की भी मदद लेने को तैयार नहीं थे।
उस दिन का लंच बहुत लाजवाब था। लंच के बाद मालिनी कुछ देर तक उन दोनों के साथ बातें करती रही।
मालिनी के घर जाने के बाद गंधर्व सितार लेकर पलाश के पेड़ वाले चबूतरे पर आकर बैठ गए। रागिनी भी अपने घुंघरू बाँध कर आ गईं।
"आप सितार बजाइए मैं नाचूँगी।"
फिर तो दोनों कलाकारों की जुगलबंदी शुरू हो गई। गंधर्व की उंगलियां सितार के तारों पर थिरक रही थीं और रागिनी के घुंघरू हवा में संगीत बिखेर रहे थे। बैकयार्ड के सभी पेड़ पौधे मंत्रमुग्ध थे।
अचानक सितार बजाती उंगलियां रुक गईं। रागिनी के घुंघरू शांत हो गए। गंधर्व अपना सीना पकड़े बैठे थे। रागिनी ने भाग कर एंबुलेंस को फोन किया। जाते हुए सरला से कहा कि मालिनी को फोन कर बुला ले।
रागिनी अस्पताल पहुँचीं तो डॉक्टरों ने गंधर्व को मृत घोषित कर दिया। रागिनी समझ नहीं पा रही थीं कि कब मौत ने उस जश्न के बीच आकर गंधर्व को उनसे छीन लिया। जब मालिनी अस्पताल पहुँची तो रागिनी उसके कंधे पर सर रख कर रोने लगीं।
उसके बाद वह एकदम शांत हो गईं। अपना सारा दुख सीने में दबा कर गुमसुम सी जीने लगीं। तबसे आज छह महीने हो गए। वह अपने दुख में डूबी थीं।
अब रागिनी के जीवन में केवल दो ही लोग थे। सरला जो पिछले पाँच सालों से उनके यहाँ काम कर रही थी। दूसरी थी मालिनी।
मालिनी उन दोनों की मानसिक पुत्री थी। गंधर्व कहते थे कि उन्होंने उसे कला से गोद लिया है।
मालिनी एक उभरती हुई पेंटर थी। उसकी एक प्रदर्शनी में ही वह दोनों पति पत्नी से मिली थी। उन्होंने उसकी एक पेंटिंग खरीदी थी। मालिनी खुश थी कि उसकी कला को दो बड़े कलाकारों ने सराहा है। उसके बाद से ही वह उन दोनों के नज़दीक आ गई। कुछ ही समय में रिश्ता इतना गहरा हो गया कि वह उनकी मानसिक बेटी बन गई।
अपने मानसिक पिता के जाने के बाद मालिनी को लगता था कि रागिनी को इस स्थिति से बाहर निकालना उसकी ज़िम्मेदारी है।
सरला ने आकर कहा,
"दीदी खाना बन गया है। आपके लिए लगा दूँ। फिर मैं आंटी को खिला दूँगी।"
"प्लेट लगा कर मुझे दो। आज मैं मैम को खिलाऊँगी।"
मालिनी प्लेट लेकर कमरे में गई। रागिनी बिस्तर पर लेटी सूनी आँखों से छत को ताक रही थीं। मालिनी ने प्लेट साइड टेबल पर रख दी। उसने प्यार से रागिनी का माथा सहलाया। रागिनी उठ कर बैठ गईं।
"कब आईं तुम ? कैसी हैं तुम्हारी मम्मी ?"
"आज सुबह ही लौटी। मम्मी अब ठीक हैं। पर सरला बता रही थी कि आपने खाना भी छोड़ दिया है। उसे जबरदस्ती करके खिलाना पड़ता है।"
रागिनी चुप रहीं। मालिनी ने प्लेट उठाई। एक कौर बना कर रागिनी की तरफ़ बढ़ा दिया। रागिनी वैसे ही बैठी रहीं।
"खाना नहीं खाएंगी तो कैसे चलेगा ?"
"मन नहीं करता है।"
"खाना शरीर चलाने के लिए खाया जाता है। नहीं खाएंगी तो कमज़ोर हो जाएंगी।"
"जीने की भी इच्छा नहीं रही अब। अच्छा है ऐसे जल्दी मर जाऊँगी।"
मालिनी ने प्लेट वापस रख दी। उन्हें अपने सीने से लगा कर बोली,
"कैसी बातें कर रही हैं। क्यों नहीं जीना है आपको ?"
"गंधर्व चले गए। उनके साथ सब चला गया। उनका सितार चुप हो गया और मेरे घुंघरू बेजान। अब क्यों जिऊँ।"
रागिनी की बात ने मालिनी के दिल को चीर कर रख दिया। वह कमरे से बाहर आ गई। सरिता से कहा कि वह जाकर रागिनी को खाना खिला दे। अपना हैंड बैग उठा कर वह अपने घर चली गई।
रागिनी के शब्द मालिनी को परेशान किए हुए थे। वह जानती थी कि गंधर्व और रागिनी का रिश्ता बहुत गहरा था। क्योंकि वह रिश्ता सिर्फ पति पत्नी का ही नहीं था। वो एक दूसरे के दोस्त और हमनवां थे। दोनों कला के उपासक थे। कला ने उन लोगों के रिश्ते को इतनी बारीकी से बुना था कि जब मौत ने गंधर्व को रागिनी से छीना तो उन्हें लगा कि उनका वजूद ही छिन्न भिन्न हो गया।
उस दिन जब अपनी शादी की सालगिरह पर गंधर्व लंच बना रहे थे तब रागिनी ने मालिनी को उनके मिलने की कहानी सुनाई थी।
कथक रागिनी के प्राण थे तो संगीत प्राण वायु। सितार वादन के क्षेत्र में गंधर्व का नाम बड़ी इज्ज़त से लिया जाता था। वह उनके सितार वादन का कैसेट लगा कर नृत्य करती थी। वह उनकी दीवानी थी। एक बार जब शहर में गंधर्व का सितार वादन था तो वह अपने पिता से ज़िद करके सुनने के लिए गई थी।
जब गंधर्व सितार बजा रहे थे तब रागिनी उनकी छवि को अपलक निहार रही थी। उनकी बड़ी बड़ी आँखों और घूंघराले काले बालों में उसका दिल उलझ कर रह गया था।
घर आई तो उनकी वही छवि कई दिनों तक उसकी आँखों के सामने घूमती रही। जब वह उनका कैसेट लगा कर नृत्य करती तो नाचते हुए अचानक उसके कदम रुक जाते। उसे लगता जैसे गंधर्व उसके सामने बैठे सितार बजा रहे हैं।
गंधर्व के संगीत की मुरीद अब उनकी प्रेमिका बन चुकी थी।
बाइस साल की रागिनी ने कथक के क्षेत्र में अभी कदम ही रखा था। उसकी चौथी पब्लिक पर्फार्मेंस थी। उसने सुना था कि मुख्य अतिथि के रूप में गंधर्व आने वाले हैं। यह नाम सुनते ही उसके दिल की धड़कनें बढ़ गई थीं।
वह समझ नहीं पा रही थी कि जिनकी याद करते हुए उसके पैर अचानक नाचना भूल कर थम जाते हैं उनके सामने वह कैसे परफार्म करेगी।
लेकिन उसकी घबराहट के बावजूद उस दिन उसने अपनी दमदार परफॉर्मेंस से सबकी खूब तारीफ बटोरी थी। पर जब उसे गंधर्व की तरफ से एक बुके मिला तो उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा था।
उस बुके में एक कार्ड था। उस कार्ड में लिखा था,
'कला का एक पुजारी हूँ। आपकी नृत्य कला ने अभिभूत कर दिया। यदि आप कल मेरे कार्यक्रम में तशरीफ़ लाएंगी तो मुझे अच्छा लगेगा। यह एक व्यक्तिगत कार्यक्रम है। पर मुझे अपने मेहमान बुलाने की इजाज़त है। यदि आप मेरा निमंत्रण स्वीकार करती हैं तो मैं कल अपनी गाड़ी भिजवा दूँगा। अपना जवाब कार्ड पर लिख कर भेज दें।'
रागिनी ने अपनी स्वीकृति लिख कर भेज दी।
उस दिन सितार वादन के बाद गंधर्व और रागिनी के बीच बहुत सी बातें हुईं। उसके बाद तो किसी ना किसी बहाने मुलाकातों का सिलसिला चल निकला। हर मुलाकात उन दोनों को एक दूसरे के और नज़दीक ले आती।
गंधर्व और रागिनी ने एक दूसरे का हमसफर बनने का वादा किया।
गंधर्व रागिनी से पंद्रह वर्ष बड़े थे। उनकी पहली पत्नी विवाह के दो साल बाद ही चल बसी थी। तबसे वह अकेले थे।
रागिनी के माता पिता को उसका गंधर्व से प्रेम रास नहीं आ रहा था। उन्होंने इस रिश्ते का विरोध किया। लेकिन रागिनी भी अपने फैसले पर अडिग थी। उसके माता पिता मान तो गए पर उसके बाद उन्होंने रागिनी से कोई रिश्ता नहीं रखा।
रागिनी और गंधर्व ने भी सबसे अलग अपनी एक दुनिया बसा ली। जिसमें किसी की कोई ज़रूरत नहीं थी। अपनी इस दुनिया में मस्त दोनों कला की साधना करते थे।
दोनों को एक दूसरे की इतनी आदत हो गई थी कि एक दूसरे के बिना जीवन की कल्पना ही नहीं कर सकते थे। इसलिए अब गंधर्व के जाने के बाद रागिनी जीवन से निराश हो गई थीं।
कहने को मालिनी उन दोनों की मानसिक पुत्री थी। लेकिन उसके लिए वह उसके मम्मी पापा से बढ़ कर थे। अपने मम्मी पापा को उसने सदा लड़ते ही देखा था। जब वह पंद्रह साल की थी तब दोनों का तलाक हो गया। उसके पापा ने तलाक के बाद उसकी ज़िम्मेदारी लेने से मना कर दिया। तब उसकी मम्मी को उसकी ज़िम्मेदारी लेनी पड़ी। उन्होंने ने भी यह ज़िम्मेदारी अपने भाई पर डाल दी।
अपने मामा के घर वह किसी ऐसे मेहमान की तरह थी जिसके घर आने की किसी को भी खुशी नहीं थी। उस माहौल में मालिनी ने बड़े धैर्य से अपने आप को इस लायक बनाया कि वह अपने पैरों पर खड़ी होकर उन लोगों को अपने दायित्व से मुक्त कर सके।
सदा प्यार के लिए तरसने वाली मालिनी को गंधर्व और रागिनी से भरपूर प्यार मिला था। जब भी वह उन दोनों के आपसी प्यार को देखती थी तो यही कामना करती थी कि वो दोनों हमेशा ऐसे ही साथ रहें।
मालिनी ने अब किसी भी तरह रागिनी को उनके दुख से बाहर लाने का निश्चय कर लिया था। पर समझ नहीं पा रही थी कि ऐसा कैसे करे ?
वह अब रोज़ रागिनी से मिलने जाती थी। कोशिश करती थी कि अधिक से अधिक समय बिता सके। जिससे रागिनी अपने दुख से बाहर आ सकें। पर उसकी तमाम कोशिशें कोई रंग नहीं दिखा रही थीं।
आज भी मालिनी ने अपनी पूरी कोशिश की थी कि रागिनी से बात कर उनके दिल को हल्का कर सके। पर रागिनी वैसी ही गुमसुम थीं। बहुत ज़ोर देने पर रागिनी ने बहुत थोड़ा सा खाना खाया था।
मालिनी जाकर पलाश के पेड़ के नीचे चबूतरे पर बैठ गई। उसका दिमाग काम नहीं कर रहा था। वह कोई राह तलाश रही थी जिससे उदासी के इस माहौल को खत्म किया जा सके।
अचानक जैसे अंधेरे में से रौशनी की एक किरण फूटी। उसे राह मिल गई।
घर में गंधर्व के सितार वादन का स्वर गूंज रहा था। उस स्वर को सुनकर गुमसुम बैठी रागिनी पर असर हुआ। वह उठ कर कमरे से बाहर आ गईं। इधर उधर देखने लगीं। आवाज़ को सुनते हुए वह बाहर ड्राइंग रूम में आईं। यहाँ म्यूज़िक सिस्टम पर गंधर्व के एक कार्यक्रम की डीवीडी बज रही थी।
रागिनी म्यूज़िक सिस्टम के सामने आँख मूंद कर बैठ गईं। उनकी आँखों से लगातार आंसू बह रहे थे। सरला ने मालिनी की तरफ प्रशंसा भरी दृष्टि से देखा। मालिनी भी आश्चर्य में थी कि यह बात उसे पहले क्यों नहीं सूझी।
रागिनी ने कई बार उस डीवीडी को सुना। उस दिन के बाद रोज़ वह गंधर्व के विभिन्न कार्यक्रमों की डीवीडी बजा कर सुनने लगीं।
अब वह पहले जैसी चुप नहीं रहती थीं। कुछ कुछ बातें करने लगी थीं। भूख लगने पर अपने आप खाना मांग लेती थीं।
मालिनी बहुत खुश थी। उसने धीरे धीरे उनसे गंधर्व के बारे में बात करना शुरू किया। रागिनी अब गंधर्व का नाम सुनकर रोती नहीं थीं। बल्कि उनके बारे में बात करते हुए अच्छा महसूस करती थीं।
रागिनी दिन पर दिन सामान्य हो रही थीं। अब घर में गंधर्व के सितार के स्वर गूंजते थे। रागिनी घंटों तक बैठ कर गंधर्व की डीवीडी सुनती थीं।
मालिनी और रागिनी बैठ कर चाय पी रही थीं। रागिनी खुश लग रही थीं। मालिनी ने उनसे कहा,
"मैम सर के सितार के स्वर तो फिर मुखर हो गए। पर आपके घुंघरू अभी भी खामोश हैं।"
मालिनी की बात सुनकर रागिनी गंभीर हो गईं।
"अब वो कभी नहीं बजेंगे।"
मालिनी कुछ देर सोचने के बाद बोली,
"आपको याद है। एक बार जब हम इसी तरह चाय पी रहे थे तब सर ने क्या कहा था ?"
रागिनी उस बात को याद करने का प्रयास करने लगीं। मालिनी ने उन्हें याद दिलाया।
"उन्होंने कहा था कि कलाकार की खासियत यही होती है कि ना तो कभी उसकी कला बूढ़ी होती है और ना ही कलाकार कभी मरता है। वह अपनी कला के ज़रिए हमेशा जीवित रहता है।"
रागिनी बड़े ध्यान से सुन रही थीं। मालिनी ने आगे कहा,
"उनकी बात सच है। देखिए ना उनके जाने के बाद भी उनके सितार के स्वर गूंजते हैं। अपनी मृत्यु के आठ महीने बाद भी वो अपनी कला से हमारे बीच हैं।"
रागिनी उसकी बात समझ रही थीं। मालिनी ने उनसे सवाल किया।
"मैम आप जीते जी अपनी कला को क्यों मरने दें रही हैं ?"
रागिनी उसके सवाल का कोई जवाब नहीं दे पाईं।
मालिनी घर चली गई। पर उसके उस सवाल से रागिनी के दिल में विचारों का मंथन होने लगा। रात भर वह इस सवाल का जवाब तलाशती रहीं।
मालिनी ने जब रागिनी के घर में प्रवेश किया तो उसे कुछ बदलाव महसूस हुआ। आज गंधर्व के सितार के साथ रागिनी के घुंघरू भी मुखर थे। रागिनी पूरी तन्मयता के साथ नाच रही थीं। मालिनी चुपचाप उनका नृत्य देखने लगी।
नाचते हुए रागिनी की नज़र मालिनी पर पड़ी तो उन्होंने दौड़ कर उसे गले लगा लिया।
"थैंक्यू मालिनी। तुमने मेरे भीतर के कलाकार को सही समय पर चेता दिया।"
रागिनी ने मालिनी को बैठा कर कहा,
"कल तुम्हारे सवाल का जवाब खोजते हुए मुझे गंधर्व की एक बात याद आई। उन्होंने एक बार इच्छा जताई थी कि वह हमारे घर को कला केंद्र में बदलना चाहते हैं। जहाँ उन बच्चों को नृत्य और संगीत की शिक्षा दी जाए जो गरीब घरों से हैं। मेरे भीतर के कलाकार को मकसद मिल गया। मेरे घुंघरू थिरक उठे।"
रागिनी गंधर्व के सपने को सच करने की कोशिश में जुट गईं। मालिनी ने भी उनकी हर संभव मदद की।
बसंत ऋतु अपने पूरे यौवन पर थी। पलाश का पेड़ लाल फूलों से लदा था।
गंधर्व और रागिनी के कला मंदिर में गंधर्व के सितार की आवाज़ गूंज रही थी। रागिनी छोटे छोटे बच्चों को कथक के गुण सिखा रही थीं। बच्चे उत्साह से नृत्य कर रहे थे।
रागिनी ने खिड़की के बाहर पलाश के चबूतरे को देखा। उन्हें लगा जैसे गंधर्व उस पर बैठे सितार बजा रहे हैं।