पीड़ा में आनंद
भूमिका
पीड़ा इस शब्द से हम सभी का परिचय हैं। क्योंकि जिसमें चेतना है उसे पीड़ा की अनुभूति भी होगी।
जैसे हंसना मुस्कुराना हमारे जीवित होने की निशानी है। वैसे ही पीड़ा का अनुभव करना भी हमें बताता है कि हमारे भीतर प्राणों का स्पंदन है।
हम चाहे कितनी कोशिश कर लें पीड़ा से अछूते नहीं रह सकते हैं। अपने जीवन में हम कई बार और कई प्रकार की पीड़ाओं का अनुभव करते हैं।
हम सभी का जीवन किसी ना किसी प्रकार की पीड़ा से घिरा हुआ है। पीड़ा से कोई बचा नहीं है। हर व्यक्ति किसी न किसी तरह की पीड़ा से गुज़र रहा है। उस पीड़ा के कारण सही प्रकार से जीवन नहीं जी पा रहा है।
जीवन तो जीने के लिए है। पीड़ा के बीच में जीना मुश्किल होता है। पीड़ा हर समय हमें अपने होने का एहसास कराती है।
ऐसे में क्या हम सिर्फ पीड़ा के बारे में ही सोचें? ऐसा हुआ तो हम जीवन को कैसे जी पाएंगे?
यह एक विचारणीय प्रश्न है। इसका उत्तर जानने के लिए हमें जीवन को समझना होगा। जीवन अलग अलग एहसासों के एक गुलदस्ते की तरह है। इसमें सिर्फ खुशी या सिर्फ गम नहीं हैं। यहाँ कभी खुशियों का उजाला है तो कभी गमों का अंधेरा। कोई भी अवस्था स्थाई नहीं है।
यदि हमें खुशियां मिलती हैं तो पीड़ा भी मिलेगी। उससे बचा नहीं जा सकता है।
अतः हमें समझना होगा कि जैसे खुशी स्थाई नहीं है वैसे ही पीड़ा भी स्थाई नहीं है। वह तब स्थाई बन जाती है जब हम उसके सामने हार मान लेते हैं। इसलिए हमें पीड़ा के बीच में भी मुस्कुराने की कला सीखनी चाहिए।
हरिवंश राय बच्चन जी की मधुशाला की एक पंक्ति है
पीड़ा में आनंद जिसे हो आए मेरी मधुशाला
इस संसार रूपी मधुशाला में जीवन के मधु का पान वही कर सकता है जो पीड़ा में मुस्कुराना सीख लेता है। हरिवंश राय बच्चन जी लिखते हैं,
मैं जग-जीवन का भार लिए फिरता हूँ,
फिर भी जीवन में प्यार लिए फिरता हूँ।
जग जीवन का भार एक पीड़ा है। पर कवि कहते हैं कि इस पीड़ा के बावजूद वह जीवन से प्यार करते हैं। जीवन से प्यार किए बिना उसे सही तरीके से जिया नहीं जा सकता है। जीवन से प्यार करने के लिए आवश्यक है कि हम मिलने वाली पीड़ा को उसका एक अंग मानकर अपनाएं।
ये मानकर चलें कि जो पीड़ा है वो आस्थाई है। जीवन एक सतत बहने वाली धारा है। पीड़ा को उसके मार्ग का अवरोध ना बनने दें।
पीड़ा को भुलाकर जीने का एक उत्तम रास्ता है कि हम अपनी पीड़ा के बारे में सोचना छोड़कर दूसरों की पीड़ा को समझने का प्रयास करें। कबीरदास जी कहते हैं,
कबीरा सोई पीर है, जो जाने पर पीर। जो पर पीर न जानही, सो का पीर में पीर।
वह व्यक्ति जो दूसरों की पीड़ा को समझता है वही सही मायने में पीर अर्थात ज्ञानी है। दूसरों की पीड़ा को अपनी पीड़ा से ऊपर रखकर वह जीवन को एक उद्देश्य देता है।
जो व्यक्ति अपनी पीड़ा में घुलता रहता है वह उसे कम करने की जगह और बढ़ाता है। समझदारी यही है कि पीड़ा को स्वीकार कर उसके बीच जीने की राह निकालें।
पीड़ा के बीच आनंद तलाशने की कला को दर्शाती कुछ कहानियों का एक संग्रह लेकर मैं आप सबके सामने आया हूँ। इस संग्रह का नाम है
'पीड़ा में आनंद'