Sant Shri Sai Baba - 28 in Hindi Spiritual Stories by ՏᎪᎠᎻᎪᏙᏆ ՏOΝᎪᎡᏦᎪᎡ ⸙ books and stories PDF | संत श्री साईं बाबा - अध्याय 28

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संत श्री साईं बाबा - अध्याय 28


प्राक्कथन
श्री साई अनंत हैं । वे एक चींटी से लेकर ब्रह्माण्डपर्यन्त सर्वभूतों में व्याप्त है। वेद और आत्मविज्ञान में पूर्ण पारंगत होने के कारण वे सद्गुरु कहलाने के सर्वथा योग्य हैं। चाहे कोई कितना ही विद्वान् क्यों न हो, परन्तु यदि वह अपने शिष्य की जागृति कर उसे आत्मस्वरूप का दर्शन न करा सके तो उसे सद्गुरु के नाम से कदापि सम्बोधित नहीं किया जा सकता। साधारणतः पिता केवल इस नश्वर शरीर का ही जन्मदाता है, परन्तु सद्गुरु तो जन्म और मृत्यु दोनों से ही मुक्ति करा देने वाले हैं। अतः वे अन्य लोगों से अधिक दयावन्त हैं।

श्री साईबाबा हमेशा कहा करते थे कि, “मेरा भक्त चाहे एक हजार कोस की दूरी पर ही क्यों न हो, वह शिरडी को ऐसा खिंचा चला आता है, जैसे धागे से बँधी हुई चिड़ियाँ खिंच कर स्वयं ही आ जाती हैं।” इस अध्याय में ऐसी ही तीन चिड़ियों का वर्णन हैं।

(१) लाला लक्ष्मीचन्द
ये महानुभाव बम्बई के श्री वेंकटेश्वर प्रेस मे नौकरी करते थे। वहाँ से नौकरी छोड़कर वे रेलवे विभाग में आए और फिर वे मेसर्स रैली ब्रदर्स एंड कम्पनी में मुन्शी का कार्य करने लगे। उनका सन् १९१० में श्री साईबाबा से सम्पर्क हुआ। बड़े दिन (क्रिसमस) से लगभग एक या दो मास पहले सांताक्रुज में उन्होंने स्वप्न में एक दाढ़ीवाले वृद्ध को देखा, जो चारों ओर से भक्तों से घिरा हुआ खड़ा था। कुछ दिनों के पश्चात् वे अपने मित्र श्री दत्तात्रेय मंजुनाथ बिजूर के यहाँ दासगणु का कीर्तन सुनने गए। दासगणु का यह नियम था कि वे कीर्तन करते समय सम्मुख श्री साईबाबा का चित्र रख लिया करते थे । लक्ष्मीचन्द को यह चित्र देखकर महान् आश्चर्य हुआ, क्योंकि स्वप्न में उन्हें जिस वृद्ध के दर्शन हुए थे, उनकी आकृति भी ठीक इस चित्र के अनुरूप ही थी। इससे वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि स्वप्न में दर्शन देने वाले स्वयं शिरडी के श्री साईनाथ समर्थ के अतिरिक्त और कोई नहीं है। चित्र-दर्शन, दासगणु का मधुर कीर्तन और उनके संत तुकाराम पर प्रवचन आदि का कुछ ऐसा प्रभाव उनपर पड़ा कि उन्होंने शिरडी-यात्रा का दृढ़ संकल्प कर लिया । भक्तों को चिरकाल से ही ऐसा अनुभव होता आया है कि जो सद्गुरु या अन्य किसी आध्यात्मिक ज्ञान की खोज में निकलता है, उसकी ईश्वर सदैव ही सहायता करते हैं। उसी रात्रि को लगभग आठ बजे उनके एक मित्र शंकरराव ने उनका द्वार खटखटाया और पूछा कि, क्या हमारे साथ शिरडी चलने को तैयार है ? लक्ष्मीचन्द के हर्ष का पारावार न रहा और उन्होंने तुरन्त ही शिरडी चलने का निश्चय कर लिया। एक मारवाड़ी से पन्द्रह रूपये उधार लेकर तथा अन्य आवश्यक प्रबन्ध कर उन्होंने शिरडी को प्रस्थान कर दिया। रेलगाड़ी में उन्होंने अपने मित्र के साथ कुछ देर भजन भी किया । उसी डिब्बे में चार यवन यात्री बैठे थे, जो शिरडी के समीप ही अपने-अपने घरों को लौट रहे थे। लक्ष्मीचन्द ने उन लोगों से श्री साईबाबा के सम्बन्ध में कुछ पूछताछ की। तब लोगों ने उन्हे बताया कि श्री साईबाबा शिरडी में अनेक वर्षों से निवास कर रहे है और वे एक पहुँचे हुए संत हैं। जब वे कोपरगाँव पहुँचे तो बाबा को भेंट देने के लिए कुछ अमरूद खरीदने का उन्होंने विचार किया। वे वहाँ के प्राकृतिक सौंदर्यमय दृश्य देखने में कुछ ऐसे तल्लीन हुए कि उन्हें अमरूद लेने की सुधि ही न रही। परन्तु जब वे शिरडी के समीप आए तो यकायक उन्हें अमरूद खरीदने की स्मृति हो आई। इसी बीच उन्होंने देखा कि एक वृद्धा टोकरी में अमरूद लिये ताँगे के पीछे-पीछे दौड़ती चली आ रही है। यह देख उन्होंने ताँगा रुकवाया और उनमें से कुछ बढ़िया अमरूद खरीद लिये। तब वह वृद्धा उनसे कहने लगी कि, “कृपा कर ये शेष अमरूद भी मेरी ओर से बाबा को भेंट कर देना।” यह सुनकर तत्क्षण ही उन्हें विचार हो आया कि मैंने अमरूद खरीदने की जो इच्छा पहले की थी और जिसे मैं भूल गया था, उसी की इस वृद्धा ने पुनः स्मृति करा दी है। श्री साईबाबा के प्रति उसकी भक्ति देख वे दोनों बड़े चकित हुए। लक्ष्मीचंद ने यह सोचकर कि हो सकता है कि स्वप्न में जिस वृद्ध के दर्शन मैंने किये थे, उनकी ही यह कोई रिश्तेदार हो, वे आगे बढ़े। शिरडी के समीप पहुँचने पर उन्हें दूर से ही मस्जिद में फहराती ध्वजाएँ दिखाई दीं, जिन्हें देख प्रणाम कर अपने हाथ में पूजन-सामग्री लेकर वे मस्जिद पहुँचे और बाबा का यथाविधि पूजन कर वे द्रवित हो गए। उनके दर्शन कर वे अत्यन्त आनन्दित हुए तथा उनके शीतल चरणों से ऐसे लिपटे, जैसे एक मधुमक्खी कमल के मकरन्द की सुगन्ध से मुग्ध होकर उससे लिपट जाती है। तब बाबा ने उनसे जो कुछ कहा, उसका वर्णन हेमाडपंत ने अपने मूल ग्रन्थ में इस प्रकार किया है, “सारे, रास्ते में भजन करते और दूसरे आदमी से पूछते। दूसरे से क्या पूछना? सब कुछ अपनी आँखों से देखना। काहे को दूसरे आदमी से पूछना ? सपना क्या झूठा है या सच्चा ? कर लो अपना विचार आप। मारवाड़ी से उधार लेने की क्या जरूरत थी ? हुई क्या मुराद पूरी?” ये शब्द सुनकर उनकी सर्वव्यापकता पर लक्ष्मी चन्द को बड़ा अचम्भा हुआ। वे बड़े लज्जित हुए कि घर से शिरडी तक मार्ग में जो कुछ हुआ, उसका उन्हें सब पता हैं। इसमें विशेष ध्यान देने योग्य बात केवल यही है कि बाबा यह नहीं चाहते थे कि उनके दर्शन के लिए कर्ज़ लिया जाए या तीर्थ यात्रा में छुट्टी मनायें।

साँजा (उपमा)
दोपहर के समय जब लक्ष्मीचंद भोजन को बैठे तो उन्हें एक भक्त ने साँजे का प्रसाद लाकर दिया, जिसे पाकर वे बड़े प्रसन्न हुए। दूसरे दिन भी वे साँजा की आशा लगाये बैठे रहे, परन्तु किसी भक्त ने वह प्रसाद न दिया, जिसके लिए वे अति उत्सुक थे। तीसरे दिन दोपहर की आरती पर बापूसाहेब जोग ने बाबा से पूछा कि नैवेद्य के लिए क्या बनाया जाए ? तब बाबा ने उनसे सांजा लाने को कहा। भक्तगण दो बड़े बर्तनों में सांजा भर कर ले आए।

लक्ष्मीचंद को भूख भी अधिक लगी थी। साथ ही उनकी पीठ में दर्द भी था। बाबा ने लक्ष्मीचंद से कहा — (हेमाडपंत ने मूल ग्रंथ में इस प्रकार वर्णन किया है) “तुमको भूख लगी है, अच्छा हुआ। कमर में दर्द भी है। लो, अब साँजे की ही करो दवा।” उन्हें पुनः अचम्भा हुआ कि मेरे मन के समस्त विचारों को उन्होंने जान लिया है। वस्तुतः वे सर्वज्ञ है ! 

कुदृष्टि
इसी यात्रा में एक बार उनको चावड़ी का जुलूस देखने का भी सौभाग्य प्राप्त हो गया। उस दिन बाबा कफ़ से अधिक पीड़ित थे। उन्हें विचार आया कि इस कफ़ का कारण शायद किसी की नज़र लगी हो। दूसरे दिन प्रातःकाल जब बाबा मस्जिद को गए तो शामा से कहने लगे कि, “कल जो मुझे कफ़ से पीड़ा हो रही थी, उसका मुख्य कारण किसी की कुदृष्टि ही है। मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि किसी की नज़र लग गई है, इसीलिए यह पीड़ा मुझे हुई है।” लक्ष्मीचन्द के मन में जो विचार उठ रहे थे, वही बाबा ने भी कह दिये। बाबा की सर्वज्ञता के अनेक प्रमाण तथा भक्तों के प्रति उनका स्नेह देखकर लक्ष्मीचंद बाबा के चरणों पर गिर पड़े और कहने लगे कि “आपके प्रिय दर्शन से मेरे चित्त को बड़ी प्रसन्नता हुई है। मेरा मन आपके चरण कमल और भजनों मे ही लगा रहें। आपके भवभयनाशक चरणों का स्मरण करते हुये मेरा जीवन आनन्द से व्यतीत हो जाए, ऐसी मेरी आपसे विनम्र प्रार्थना है।”  

बाबा से आशीर्वाद तथा उदी लेकर वे मित्र के साथ प्रसन्न और सन्तुष्ट होकर मार्ग में उनकी कीर्ति का गुणगान करते हुए घर वापस लौट आए और सदैव उनके अनन्य भक्त बने रहे। शिरडी जाने वालों के हाथ वे उनको हार, कपूर और दक्षिणा भेजा करते थे।

(२) बुरहानपुर की महिला 
अब हम दूसरी चिड़िया (भक्त) का वर्णन करेंगे। एक दिन बुरहानपुर में एक महिला ने स्वप्न में देखा कि श्री साईबाबा उसके द्वार पर खड़े भोजन के लिए खिचड़ी माँग रहे है। उसने उठकर देखा तो द्वार पर कोई भी न था। फिर भी वह प्रसन्न हुई और उसने यह स्वप्न अपने पति तथा अन्य लोगों को सुनाया। उसका पति डाक विभाग में नौकरी करता था। वे दोनों ही बड़े धार्मिक थे। जब उसका स्थानान्तरण अकोला (महाराष्ट्र) को हुआ तो दोनों ने शिरडी जाने का भी निश्चय किया और एक शुभ दिन उन्होंने शिरडी को प्रस्थान कर दिया । मार्ग में गोमती तीर्थ होकर वे शिरडी पहुँचे और वहाँ दो माह तक ठहरे। प्रतिदिन वे मस्जिद जाते और बाबा का पूजन कर आनन्द से अपना समय व्यतीत करते थे। यद्यपि दम्पत्ति खिचड़ी का नैवेद्य भेंट करने को ही आए थे, परन्तु किसी कारणवश उन्हें १४ दिनों तक ऐसा संयोग प्राप्त न हो सका। उनकी स्त्री इस कार्य में अब अधिक विलम्ब न करना चाहती थी। इसीलिए जब १५ वें दिन दोपहर के समय वह खिचड़ी लेकर मस्जिद में पहुँची तो उसने देखा कि बाबा अन्य लोगों के साथ भोजन करने बैठ चुके हैं। परदा गिर चुका था, जिसके पश्चात् किसी का साहस न था कि वह भीतर प्रवेश कर सके। परन्तु वह एक क्षण भी प्रतीक्षा न कर सकी और हाथ से परदा हटाकर भीतर चली आयी। बड़े आश्चर्य की बात थी कि उसने देखा कि बाबा की इच्छा उस दिन सबसे पहले खिचड़ी खाने की ही थी, जिसकी उन्हें आवश्यकता थी। जब वह थाली लेकर भीतर आई तो बाबा को बड़ा हर्ष हुआ और वे उसी में से खिचड़ी के ग्रास लेकर खाने लगे। बाबा की ऐसी उत्सुकता देख प्रत्येक को बड़ा आश्चर्य हुआ और जिन्होंने यह खिचड़ी की वार्ता सुनी, उन्हें भक्तों के प्रति बाबा का असाधारण स्नेह देख बड़ी प्रसन्नता हुई। 

मेघा का निर्वाण
अब तृतीय पक्षी की चर्चा सुनिये। बिरमगाँव (खेडा जिल्हा, गुजरात) का रहने वाला मेघा अत्यन्त सीधा और अनपढ़ व्यक्ति था। वह रावबहादुर ह. वि. साठे के यहाँ रसोईए का काम किया करता था। वह शिवजी का परम भक्त था, और सदैव पंचाक्षरी मंत्र “नमःशिवाय' का जाप किया करता था।

सन्ध्योपासना आदि का उसे कुछ भी ज्ञान न था। यहाँ तक कि वह संध्या के मूल गायत्रीमंत्र को भी न जानता था। रावबहादुर साठे का उस पर अत्यन्त स्नेह था । इसलिये उन्होंने उसे सन्ध्या की विधि तथा गायत्रीमंत्र की शिक्षा दी। साठे साहेब ने श्री साईबाबा को शिवजी का साक्षात् अवतार बतलाकर उसे शिरडी भेजने का निश्चय किया । किन्तु साठे साहेब से पूछने पर उन्होंने बताया कि श्री साईबाबा तो यवन हैं। इसलिये मेघा ने सोचा कि शिरडी में एक यवन को प्रणाम करना पड़े, यह अच्छी बात नहीं है। भोला-भाला आदमी तो वह था ही, इसलिये उसके मन में असमंजस पैदा हो गया। तब उसने अपने स्वामी से प्रार्थना की कि कृपा कर मुझे वहाँ न भेजें। परन्तु साठे साहेब कहाँ मानने वाले थे ? उनके सामने मेघा की एक न चली। उन्होंने उसे किसी प्रकार शिरडी भेज दिया तथा उसके द्वारा अपने ससुर गणेश दामोदर उपनाम दादा केलकर को, जो शिरडी में ही रहते थे, एक पत्र भेजा कि मेघा का परिचय बाबा से करा देना । शिरडी पहुँचने पर जब वह मस्जिद में घुसा तो बाबा अत्यन्त क्रोधित हो गए और उसे उन्होंने मस्जिद में आना मना कर दिया। वे गर्जन कर कहने लगे कि, “इसे बाहर निकाल दो।” फिर मेघा की ओर देखकर कहने लगे कि, “तुम तो एक उच्च कुलीन ब्राह्मण हो और मैं निम्न जाति का एक यवन। तुम्हारी जाति भ्रष्ट हो जाएगी। इसलिए यहाँ से बाहर निकल जाओं।” ये शब्द सुनकर मेघा काँप उठा। उसे बड़ा विस्मय हुआ कि जो कुठ उसके मन में विचार उठ रहे थे, उन्हें बाबा ने कैसे जान लिया ? किसी प्रकार वह कुछ दिन वहाँ ठहरा और अपनी इच्छानुसार सेवा भी करता रहा, परन्तु उसकी इच्छा तृप्त नहीं हुई । फिर वह घर लौट आया और वहाँ से त्रिंबक (नासिक जिला) को चला गया। वर्ष भर के पश्चात् पुनः शिरडी आया और इस बार दादा केलकर के कहने से उसे मस्जिद में रहने का अवसर प्राप्त हो गया। साईबाबा मौखिक उपदेश द्वारा मेघा की उन्नति करने के बदले उसका आंतरिक सुधार कर रहे थे। उसकी स्थिति में पर्याप्त परिवर्तन हो कर यथेष्ट प्रगति हो चुकी थी और अब तो वह श्री साईबाबा को शिवजी का ही साक्षात् अवतार समझने लगा था। शिवपूजन में बिल्व पत्रों की आवश्यकता होती है। इसलिए अपने शिवजी (बाबा) का पूजन करने हेतु बिल्वपत्रों की खोज में वह मीलों दूर निकल जाया करता था। प्रतिदिन उसने ऐसा नियम बना लिया था कि गाँव मे जितने भी देवालय थे, प्रथम वहाँ जाकर वह उनका पूजन करता और इसके पश्चात् ही चरणामृतपान करता था। एक बार ऐसा हुआ कि खंडोबा के मंदिर का द्वार बन्द था। इस कारण वह बिना पूजन किये ही वहाँ से लौट आया और जब वह मस्जिद में आया तो बाबा ने उसकी सेवा स्वीकार न की तथा उसे पुनः वहाँ जाकर पूजन कर आने को कहा और उसे बतलाया कि अब मंदिर के द्वार खुल गए हैं। मेघा ने जाकर देखा कि सचमुच मंदिर के द्वार खुले थे। जब उसने लौटकर यथाविधि पूजा की, तब कहीं बाबा ने उसे अपना पूजन करने की अनुमति दी।

गंगास्नान
एक बार मकर संक्रन्ति के अवसर पर मेघा ने विचार किया कि बाबा को चन्दन का लेप करूँ तथा गंगाजल से उन्हें स्नान कराऊँ। बाबा ने पहले तो इसके लिए अपनी स्वीकृति न दी, परन्तु उसकी लगातार प्रार्थना के उपरांत उन्होंने किसी प्रकार स्वीकार कर लिया। गोदावरी नदी का पवित्र जल लाने के लिए मेघा को आठ कोस' का चक्कर लगाना पड़ा। वह जल लेकर लौट आया और दोपहर तक पूर्ण व्यवस्था कर ली। तब उसने बाबा को तैयार होने की सूचना दी। बाबा ने पुनः मेघा से अनुरोध किया कि, “मुझे इस झंझट से दूर ही रहने दो। मैं तो एक फकीर हूँ, मुझे गंगाजल से क्या प्रयोजन?” परन्तु मेघा कुछ सुनता ही न था। मेघा की तो यह दृढ़ धारणा थी कि शिवजी गंगाजल से अधिक प्रसन्न होते हैं। इसलिए ऐसे शुभ पर्व पर अपने शिवजी को स्नान कराना हमारा परम कर्तव्य है। अब तो बाबा को सहमत होना ही पड़ा और नीचे उतार कर वे एक लकड़ी के तख्त पर बैठ गए तथा अपना मस्तक आगे करते हुए कहने लगे कि, “अरे मेघा! कम से कम इतनी कृपा तो करना कि केवल मेरे सिर पर ही पानी डालना। सिर शरीर का प्रधान अंग है और उस पर पानी डालना ही पूरे शरीर पर पानी डालने के सदृश है।” मेघा ने ‘अच्छा अच्छा’ कहते हुए बर्तन उठाकर सिर पर पानी डालना प्रारम्भ किया। ऐसा करने से उसे इतनी प्रसन्नता हुई कि उसने उच्च स्वर में 'हर हर गंगे' कहते हुए समुचे बर्तन का पानी बाबा के सम्पूर्ण शरीर पर उँडेल दिया और फिर पानी का बर्तन एक ओर रखकर वह बाबा की ओर निहारने लगा। उसने देखा कि बाबा का तो केवल सिर ही भीगा है और शेष भाग ज्यों का त्यों बिल्कुल सूखा ही है। यह देख उसे बड़ा आश्चर्य हुआ।

त्रिशुल और पिंडी
मेघा बाबा की दो स्थानों पर पूजा करता था। पहले वह मस्जिद में फिर वाड़े में नानासाहेब चाँदोरकर द्वारा प्राप्त उनके बड़े चित्र को। इस प्रकार यह क्रम १२ मास तक चलता रहा।

बाबा ने उसकी भक्ति तथा विश्वास दृढ़ करने के लिए उसे दर्शन दिये। एक दिन प्रातःकाल मेघा जब अर्द्ध निद्रावस्था में अपनी शैया पर पड़ा हुआ था, तभी उसे उनके दर्शन हुए। बाबा ने उसे जागृत जानकर अक्षत फेंके और कहा कि “मेघा! त्रिशुल लगाओ।” इतना कहकर वे अदृश्य हो गए। उनके शब्द सुनकर उसने उत्सुकता से अपनी आँखे खोली, परन्तु देखा कि कोई नहीं है, केवल अक्षत ही यहाँ-वहाँ बिखरे पड़े हैं। तब वह उठकर बाबा के पास गया और उन्हें अपना स्वप्न सुनाने के पश्चात् उसने उन्हें त्रिशुल लगाने की आज्ञा माँगी। बाबा ने कहा कि, “क्या तुम ने मेरे शब्द नहीं सुने कि त्रिशुल लगाओ। वह कोई स्वप्न नहीं वरन् मेरी प्रत्यक्ष आज्ञा थी। मेरे शब्द सदैव अर्थपूर्ण होते हैं, थोथे-पोचे नहीं ।” मेघा कहने लगा कि आपने दया कर मुझे निद्रा से तो जागृत कर दिया है, परन्तु सभी द्वार पूववत् ही बन्द देखकर मैं मूढ़मति भ्रमित हो उठा हूँ कि कहीं स्वप्न तो नहीं देख रहा था।” बाबा ने आगे कहा कि, “मुझे प्रवेश करने के लिए किसी द्वार की आवश्यकता नहीं है। न मेरा कोई रूप ही हैं और न ही कोई अंत । मैं सदैव सर्वभूतों में व्याप्त हूँ। जो मुझ पर विश्वास रखकर सतत् मेरा ही चिन्तन करता है, उसके सब कार्य मैं स्वयं ही करता हूँ और अन्त में उसे श्रेष्ठ गति देता हूँ।” मेघा वाड़े को लौट आया और बाबा के चित्र के समीप ही दीवार पर एक लाल त्रिशूल खींच दिया। दूसरे दिन एक रामदासी भक्त पूने से आया। उसने बाबा को प्रणाम कर शंकर की एक पिंडी भेंट की । उसी समय मेघा भी वहाँ पहुँचे। तब बाबा उनसे कहने लगे कि देखो, शंकर भोले आ गए है। अब उन्हें सँभालो । मेघा ने पिंडी को देखा तो उसे महान् विस्मय हुआ । वह वाड़े मे आया। इस समय काकासाहेब दीक्षित स्नान के पश्चात् सिर पर तौलिया डाले 'साई' नाम का जाप कर रहे थे। तभी उन्होंने ध्यान में एक पिंडी देखी, जिससे उन्हें कौतूहल-सा हो गया था। उन्होंने सामने से मेघा को आते देखा । मेघा ने बाबा द्वारा प्रदत्त वह पिंडी काकासाहेब दीक्षित को दिखाई। पिंडी ठीक वैसी ही थी, जैसी कि उन्होंने कुछ घड़ी पूर्व ध्यान में देखी थी। कुछ दिनों में जब त्रिशूल का खींचना पूर्ण हो गया तो बाबा ने बड़े चित्र के पास (जिसका मेघा नित्य पूजन करता था) ही उस पिंडी की स्थापना कर दी। मेघा को शिव-पूजन से बड़ा प्रेम था । त्रिपुंड खींचने का अवसर देकर तथा पिंडी की स्थापना कर बाबा ने उसका विश्वास दृढ़ कर दिया ।

इस प्रकार कई वर्षों तक लगातार दोपहर और सन्ध्या को नियमित आरती तथा पूजा कर सन् १९१२ में मेघा परलोकवासी हो गया। बाबा ने उसके मृत शरीर पर अपना हाथ फेरते हुए कहा कि, “यह मेरा सच्चा भक्त था ।” फिर बाबा ने अपने ही खर्च से उसका मृत्यु-भोज ब्राह्मणों को दिये जाने की आज्ञा दी, जिसका पालन काकासाहेब दीक्षित ने किया ।