Vakil ka Showroom - 16 in Hindi Thriller by Salim books and stories PDF | वकील का शोरूम - भाग 16

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वकील का शोरूम - भाग 16

लगभग सात बजे अंजुमन उसी बंगले में पहुंची, जहां दाढ़ी-मूंछों वाला वह नौजवान रहता था, जिसे लोग राज बहादुर कहते थे।

उसे देखते ही गेट पर खड़े दरबान ने चुपचाप दरवाजा खोल दिया। अंजुमन ने अपनी स्कूटी गेट के कुछ आगे ले जाकर रोकी, फिर तेजी से चलती हई बंगले के उस कमरे में पहुंची। जहां राज बहादुर के होने का अनुमान था।

वह कमरा एक लाइब्रेरी की शक्ल में था, जिसमें लगभग 20 ऊंचे रैक लगे हुए थे तथा जिनमें हजारों पुस्तकें करीने से सजी हुई थीं।

राज बहादुर वहां न केवल मौजूद था, बल्कि तन्मयता से एक किताब पढ़ने में जुटा हुआ था। अंजुमन के कदमों की आहट पाकर उसने सिर उठाया तथा साथ ही किताब को बंद कर दिया।

"क्या पढ़ रहे थे?" अंजुमन ने पूछा।

राज बहादुर ने अपनी नजरें अंजुमन पर टिका दीं। फिर बिल्कुल धीमे स्वर में बोला "वहीं, जो मुझे नहीं पढ़ना चाहिए था।"

"क्या मतलब?"

"ऐसे बहुत से विषय होते हैं, जिनसे इंसान का कोई वास्ता नहीं होता। दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं होता। अगर होता भी है तो वह न होने से कहीं बेहतर होता है। फिर भी अगर व्यक्ति उस विषय को पढ़ता है या जानने की कोशिश करता है तो उसे क्या कहना चाहिए?"

"जिज्ञासु। और क्या?" अंजुमन सपाट स्वर में बोली- "कोई बुराई तो नहीं होती ऐसे विषय पढ़ने में। मनुष्य जीवन में ऐसे न जाने कितने विषयों के बारे में पढ़ता है, जिससे उसका न कभी कोई वास्ता रहा है और न ही रहने की संभावना है। वैसे जरा देखूं तो, क्या पढ़ रहे थे तुम?"

कहकर अंजुमन ने हाथ बढ़ाकर वह किताब उठा ली,
जिसे राज बहादुर ने अभी-अभी बंद किया था। किताब का टाइटल देखकर वह हत्प्रभ रह गई। उसने जल्दी-जल्दी कुछ पृष्ठ पलटे, फिर उसे यथास्थान रख दिया।

"तुम यह पढ़ रहे थे?" फिर वह आश्चर्य भरे स्वर में बोली- "वात्स्यायन का कामसूत्र?"

"कामसूत्र तो मैंने पहले भी बहुत पढ़े हैं, लेकिन ऐसा कभी नहीं पढ़ा।"

"कुछ खास बात है इसमें?"

"यह 'राजा पॉकेट बुक्स' ने स्पेशल साइज में प्रकाशित किया है। खास बात यह है कि इसमें व्याख्याकार जे. के. वर्मा ने कड़ी मेहनत की है। इसमें सेक्स के ऐसे पहलुओं को छुआ है जो पहले कभी नहीं छूए गए। सबसे बड़ी बात उसने व्याख्या करते हुए इतिहास, साहित्य, वेद-शास्त्र व प्रामाणिक वस्तुओं के उद्धरण भी प्रस्तुत किए हैं।"

"अच्छा?"

"तुम इस किताब को जरूर पढ़ना। पढ़कर यूं लगेगा, जैसे जिंदगी में बहुत खो रहा था जो इस पुस्तक को पढ़कर मिल गया।"

अंजुमन के होंठों पर कड़वाहट भरी मुस्कराहट उभर आई। उसने पूछा- "तुम्हें कुछ मिला?"

"बहुत कुछ।"

"क्या बहुत कुछ?"

"अब मुझे विश्वास हो गया है कि मैं जीवन में कभी औरत जात से मात नहीं खाऊंगा।"

"अब तक मात खा रहे थे?"

"छोड़ो इन बातों को। बैठ जाओ। मैंने तुमसे बहुत जरूरी बातें करनी हैं, इसलिए तुम्हें यहां बुलाया है।"

"यानी अपनी गर्ज में बुलाया है। मेरा हाल-चाल पूछने के लिए नहीं बुलाया।"

"इंसान की जात बहुत स्वार्थी हो गई है। उसे शायद अपने अलावा किसी की चिंता नहीं रही।" राज बहादुर एक गहरी सांस लेकर बोला- "आजकल दूसरों की भावनाओं की कढ़ नहीं की जाती। उन्हें खुलकर यूज किया जाता है।" "क्या यह बात तुम्हारे और मेरे पर भी लागू होती है?"

"मैंने एक साधारण बात कही है। किसी पर आक्षेप नहीं लगाया। तुम बैठी नहीं अभी तक।"

अंजुमन वही पड़ी एक कुर्सी पर बैठ गई।

"पहले अपना हाल-चाल ही सुनाओ।" राज बहादुर बोला- "ताकि तुम्हारी यह शिकायत सके कि मैंने तुम्हें केवल खुद दूर हो

के स्वार्थ के लिए बुलाया है।" "पूछो। क्या पूछना चाहते हो मेरे बारे में?"

"खुलकर पूछू या ढके-छिपे शब्दों में?"

"तुम जैसे चाहो पूछो मुझे कोई ऐतराज न होगा।"

"तो फिर, सबसे पहले अपनी सेक्स लाइफ के बारे में ही बताओ। मैं सबसे ज्यादा उत्सुक यह जानने के लिए हूं कि एक निम्फोमिनियाक, जो तकरीबन 15-20 दिन पहले तक एक कॉलगर्ल थी, इन दिनों कैसे अपनी जिंदगी गुजार रही है?"

अंजुमन के चेहरे पर किसी भी तरह का कोई भाव नं उभरा। वह सपाट स्वर में बोली "मैंने अपने बॉस यानी बैरिस्टर विनोद को अपने बारे में सबकुछ बता दिया है। वह मेरा पूरा ध्यान रखता है और मेरी जरूरतों को पूरा करता है।"

"ओह! यानी तुम्हें नौकरी से कोई परेशानी नहीं?"

"नहीं।" अंजुमन बोली- "लेकिन मैं यह नौकरी ज्यादा दिनों तक नहीं करूंगी। तुमने भी सिर्फ एक महीने के लिए ही कहा था।"

"याद है मुझे, लेकिन इस बात का मुझे कतई इल्म नहीं था कि शोरूम का उद्घाटन इतना लेट हो जाएगा। खैर छोड़ो, तुम एक महीना ही नौकरी करना। इससे ज्यादा मैं तुम्हें बाध्य नहीं करूंगा।"

"कुछ और पूछना चाहोगे मेरे बारे में? यानी मेरा हाल-चाल?"
"क्यों नहीं। बताओ, तुम्हें नौकरी करते हुए कैसा महसूस हो रहा है?"

"बुरा। बहुत बुरा।"

"क्या मतलब?"

"शोरूम अभी विधिवत रूप से खुला नहीं है, लेकिन मैं वहां इतनी बदनाम हो चुकी हूं, जितनी कोई जानी-मानी रंडी भी नहीं होती।"

"मैं कुछ समझा नहीं।"

"इसमें न समझने वाली कौन-सी बात है। शोरूम में काम करने वाला हर कर्मचारी जान चुका है कि मैं चालू किस्म की हूं और बॉस के साथ मेरे जिस्मानी ताल्लुकात हैं।"

"ओह!"

"अगर मैं ज्यादा दिन वहां रही तो शायद पूरा शहर मुझे पहचानने लगेगा और मैं चैन से जी नहीं पाऊंगी।"

राज बहादुर का चेहरा गंभीर होता चला गया। उसने एक ही झटके से कहा- "तुम वह नौकरी छोड़ दो।"

"एक महीने से पहले नहीं। प्रॉमिस इज प्रॉमिस ।"

"भूल जाओ प्रॉमिस को।"

"नहीं भूल सकती। तुम अच्छी तरह जानते हो मेरी इस फितरत को। अगर मुझे प्रॉमिस भूलने की आदत होती तो आज मेरी यह हालत न होती।"

राज बहादुर की धीरे-धीरे सहमति में गर्दन हिलने लगी। उसके चेहरे पर तनाव की लकीरें स्पष्ट दिखाई दे रही थीं।

"अब बोलो। मुझे किसलिए बुलाया था?" अंजुमन ने पूछा। राज बहादुर ने स्वयं को सामान्य बनाने में थोड़ी देर लगाई, फिर बोला- "मैं यह जानना चाहता हूं कि शोरूम का उद्घाटन कब है?"

"कल शाम को।"

"इसके लिए क्या तैयारियां चल रही हैं?"

"तगड़ी तैयारियां चल रही हैं। मेरी जानकारी के मुताबिक उद्घाटन अवसर पर कई पूर्व मंत्री, सांसद, विधायक व पूर्व जज आएंगे। कुल एक हजार लोगों के लिए भोजन की व्यवस्था की गई है।"

"अब भीतर के बारे में बताओ।"

"क्या बताऊं?"

"उदघाटन हो जाने के बाद शोरूम में कितने लोग काम करेंगे?"

"यही कोई 30 के आस-पास। इनमें से दस के करीब तो काले कोट वाले होंगे। इतने ही उनके पी.ए. यानी मुंशी। पांच-छः मेरे जैसी लड़कियां काउंटर पर रहकर ग्राहक अटैंड करेंगी और जैसा केस होगा, वैसे ही वकील के पास भेज देंगी। इसके अलावा कुछ अटेंडेंट होंगे या चपरासी और सफाई कर्मचारी होंगे।"