"बुआ जी...." आश्चर्य से माधव के मुँह से निकला...
"मुझे मत कहो बुआ...भूरे ने हमें थोड़े दिन का सहारा क्या दे दिया था बदले में रमा को हथियाना चांहा...और तुमने भी वही किया... थोड़ा सहारा क्या दे दिया...बदले में तुम भी रमा को...
"न....हीं ...बु....आ...जी...ऐसे मत कहिए..."ये शब्द सुनना माधव को असह्य लगा वो काँपते हुए तेज़ आवाज में बोला
"चु...प रहो...ये बुढ़िया अनपढ़ जरूर है...लेकिन अंधी नहीं है" सुशीला चीख पड़ी।
"मैं ...मैं आपको समझाता हूँ...."
"कुछ और समझने को बाकी बचा ही कहाँ है....सब तो पानी की तरह साफ है ...रमा मासूम है..उसने तो ये दुनियां उतनी भी नहीं देखी जितनी कि मैंने देख ली है...बेचारी बस्स दुख ही झेलती आई है...पहले माँ की मौत फिर शराबी बाप की मौत ...सो भी सब बेच बाच कर...फिर भूरे...ऐसे में तो उसे वो भी भगवान से कम ना दिखेगा जो सहानुभूति का कंधा भर दे दे...ऐसे में वो तुम्हें पसन्द करने भी लगे तो उसका क्या दोष ...लेकिन तुम्हीं सोचो क्या ये उस मासूम की हालत का फायदा उठाना नहीं है..."
"बुआ जी ...मेरी बात समझिये..."
"समझकर ही तो निर्णय लिया है...
"निर्णय? "
"हम्म निर्णय...मैं रमा को अपने भाई के घर इसलिए लायी थी..कि वो सुरक्षित रह सके..लेकिन तुम...अपना पिता का वादा नहीं निभा पाए ...मैं कल ही रमा को लेकर यहाँ से कहीं चली जाऊँगी"
रमा के घर से जाने की बात सुनकर माधव को अपना दम घुटता महसूस हुआ...लेकिन सुशीला कुछ सुनने को तैयार नहीं थीं...वो कहे जा रहीं थीं
" फिर चाहे जो हो उस अभागी के साथ...वैसे भी भाग्य का लिखा कौन टाल सका है..जो हो सो वर्दाश्त कर लूँगी...लेकिन अपनी आँखो के ही सामने तुम्हें उस पर डोरे डालते नहीं देख सकती ...छी: छी: ....पिता के वादे का नहीं तो कम से कम रिश्ते का तो ख्याल रखा होता...बुआ जी कहते हो मुझे...मेरे लिए मेरी बेटी है वो...
...
सुशीला कुछ आगे बोल पातीं गिरता-पड़ता सा माधव उनके आगे घुटनों के बल बैठ गया
"मैं उन्हीं पिताजी की कसम खाकर कहता हूँ ...कि मेरे मन में कोई मैल नहीं रमा के लिए...जो आप उसके लिए ये घर असुरक्षित महसूस करें ...भगवान के लिये मुझे इतना शर्मिंदा मत कीजिये कि मैं खुद को ही आईने में ना देख सकूं...
माधव गर्दन झुकाते हुए हाथ जोड़ कर बोला, उसका पूरा चेहरा आंसुओ से भीग गया था। माधव को ऐसे देख सुशीला का गुस्से का पारा थोड़ा कम हुआ
"जानते हो माधव ...जब बारह साल की थी...मेरी शादी एक पैतीस साल के आदमी से कर दी गयी थी। उस पर भी ना जाने कौन सी बीमारी से ग्रसित था वो ... जब मैं पंद्रह साल की हुई और ससुराल जाने का समय आया ...मेरे घर में सब मेरी गौने की विदा की तैयारी कर रहे थे..कि समाचार मिला मेरा पति चल बसा...ना शादी का मतलब समझ आया...ना इस जीवन का...और सजा मिली तो आजन्म वृद्धाआश्रम में रहने की... फिर जब रमा को बुरे हालात में देखा ...तब सोच लिया...चाहें दुनिया कुछ भी कहे रमा की शादी उसके मन के मुताबिक ही करूँगी...और मन के मुताबिक तो तब होगा ना... जब पसन्द करने के लिए एक से ज्यादा की उपलब्धता हो..फिर चाहे इंसान हो या सामान ...जब सामने एक ही चीज़ या इन्सान हो तो उसे चुनना पसंद नहीं...मजबूरी कही जाती है...और रमा की मजबूरी का फायदा मैं अपने चलते किसी को नहीं उठाने दूँगी" वो कहीं खोयी सी बोलीं...
"याद रखना माधव मैं रमा को यहाँ से तुम्हारे कारण लिए जा रही हूँ...अगर उसके साथ कुछ बुरा हुआ तो उसके जिम्मेदार तुम होओगे"
"मुझे माफ़ कर दीजिए बुआ जी...आपको कहीं जाने की जरूरत नहीं......जो आप चाहेंगी वही होगा...मेरा वादा है आपसे... कोई शिकायत का मौका नहीं दूँगा" माधव विनती करता हुआ बोला
"हुम्म ...तुम निभाओगे वादा..तुम? " सुशीला तंज भरे अंदाज में बोलीं
"हाँ मैं ..अपने पिता का किया हुआ वादा मैं निभाउंगा" इस बार माधव अपना चेहरा सख्त करता दाँत भींचते हुए बोला, तो सुशीला ने गर्व से फूलते हुए चुपचाप बैठ गयीं
***
"वंशी..." माधव ने सीढ़िया उतरते हुए आवाज दी
"हॉं भईया..." वंशी हाथ में थैला घुमाते हुए सामने आए
"बढ़ई को बुलाकर लाओ"
"बढ़ई...क्यों ...सारे दरवाजे खिड़कियाँ एकदम चकाचक काम कर रहे हैं..."
"अपने कमरे में पल्ले लगवाने हैं लकड़ी के"
"क्या भईया अजीब ही हो...कुछ समय पहले ही तुमने कांच तक के लगे हुए पल्ले निकलवा दिए थे ये बोलकर कि दम घुटता है कमरे में..और अब लकड़ी के....
"वंशी ...कभी तो बिना बहस किये मेरी बात मान लिया करो यार.." माधव ने खीजते हुए जब हाथ जोड़ दिए तो वंशी बिना बोले घर से बाहर निकल गया।
"चाय बना दूँ" रमा मुस्कुराती हुई सामने आकर खड़ी हुई
"नहीं...मन नहीं चाय का" बिना रमा की ओर देखे माधव ने जवाब दिया और सीढ़ियां चढ़ गया। सुशीला मुंह बनाये अपनी माला जपती रहीं।
***
"ठक-ठक की आवाज से माथा सुन्न कर दिया है तुम लोगों ने ...कहते थे..एक घण्टे में पल्ले लगा देंगे ...देखो तो दो घण्टे बीत चुके हैं " वंशी काम कर रहे कारीगरों को हड़काते हुए बोला फिर पास ही चुपचाप बैठे माधव की ओर देखकर बोला " तुमने आज चाय नहीं पी...सुबह बीबी जी बता रहीं थीं...बड़ा ताज्जुब हुआ सुनकर कि भईया सो भी चाय की मना कर दें "
"बस मन नहीं हुआ" माधव सटीक सा बोल कर फिर चुप हो गया
"तबियत तो ठीक है...?"
"हम्म ठीक है ..सुनो वंशी...छुट्टियाँ खत्म हो गयी हैं...कल से कॉलेज जाऊँगा..तुम ही सुबह और शाम की चाय लाना और खाना भी"
"क्या...मैं...लेकिन तुम्हें तो..
"वंशीsss....जो कहा है सो करो..वैसे भी तुम पर उत्तरदायित्व है मेरा...रमा पर नहीं." माधव खीज कर बोला
माधव की बात सुनकर वंशी को बड़ा आश्चर्य हुआ
"लो जी हो गया काम पूरा" बढ़ई की बात सुनकर जहाँ वंशी उनसे हिसाब-किताब में व्यस्त हो गया वहीं माधव उस खिड़की को ऐसे देख रहा था जैसे वो बन्द खिड़की कोई डरावनी चीज़ हो
"ना उगता सूरज ...ना सुनहरी पानी की बूंदें...ना तुम्हारा सुखदायक दर्शन... रमा" माधव खिड़की की चटकनी लगाता हुआ बोला।
***
सुबह उठकर उसके हाथ खिड़की पर परदा खींचने को बढ़े ...लेकिन कुछ नया अनुभव हुआ तो आंखें खोल दीं
परदा नहीं...खिड़की थी सो भी बन्द...अचानक से सुशीला से की हुई बातें और खिड़की लगने की प्रक्रिया याद आ गयी...तेजी से उठा...कपड़े उठाये कमरे से निकला ही था।
"उठ गए...ये रही आपकी चाय..." रमा हाथ में कप लिए सामने खड़ी थी...माधव ने नजर ऊपर नहीं उठाई...लेकिन कप पकड़े रमा के हाथ में हरी चार चूड़ियां हिलती हुई दिख रहीं थी।
"जल्दी जाना है आज ..."इतना बोल वो जैसे ही मुड़ा
"अरे बीबी जी मैंने कहा तो आप सब्जी बनाइये चाय मैं ले जाता हूँ" वंशी ऊपर आया...शायद रमा वंशी के रोकने के बाबजूद भी चाय ले आई थी..और वंशी को माधव की हिदायत थी कि वही चाय लाये। इसीलिए वो दौड़ता आया था
***
"वंशी..." माधव कॉलेज से जानबूझकर देरी से आया था। और दरवाजे के अंदर कदम रखते ही वो सबसे पहले वंशी को ही आवाज लगाना आदत थी उसकी
"आ गए भईया..."
"हम्म...चाय तो लाओ जल्दी..."कहता हुआ, बिना किसी की ओर देखे वो अपने कमरे की ओर बढ़ गया
रमा, चाय की सुनते ही रसोई की ओर बढ़ गयी..अगर घर में होती तो माधव के लिए चाय वो ही बनाती ...जानती थी कि माधव को उसके हाथ की चाय पसन्द थी। और आज माधव के देर से आया था। तो वो पहले ही आ चुकी थी।
"..अरे ये क्या..कमरे की सफाई किसने की?" माधव ने कमरे को देखते हुए कहा, तब तक रमा कमरे में आ चुकी थी
"मैंने...अच्छा लग रहा है ना अब" वो चाय का कप उसकी ओर बढाते हुए बोली
"तुमने ...क्यों ? क्यों किया साफ " माधव ने तनिक आवेग में कहा
"मैंने वो बस्स ...गंदा लग रहा था वो..." रमा ने बोलने की कोशिश की लेकिन शब्द जैसे आपस में ही उलझ गए
"मेरा कमरा और गंदा...?"
"न नहीं बस्स ..किताबों पर धूल लगी थी...तो" रमा मुश्किल से बोल पायी। माधव क़िताब का नाम सुनकर चौकन्ना हो गया...उसे किताबों के बीच कागजों में लिपटी टूटी चूड़ी याद आ गयी..ख्याल आया कहीं रमा ने उसे देख तो नहीं लिया
"क्या तुमने किताबें साफ की ..अरे बोलो ना" माधव डर की वजह से गुस्से में आ गया था। और तेज़ आवाज सुनकर वंशी भी कमरे में आ चुका था
"...कोई किताब नहीं हटाई... बस्स ऊपर से धूल साफ की" माधव को गुस्से में देखकर रमा के चेहरे का रंग उतर गया था
जैसे ही माधव ने वंशी को देखा तो अपना सारा गुस्सा उस ओर निकाल दिया।
"कहाँ रहते हो तुम...हां...खाना ये बनाये , चाय ये बनाये..मेरे कपड़े ये धोए...और कमरे की सफाई भी यही करे.जरा बताओ ये पढ़े कब?...और फिर तुम? तुम क्या करोगे? ...और मेरा कमरा...ख़बरदार ...जो किसी ने मेरे कमरे में रखे किसी भी सामान को हाथ भी लगाया तो मुझसे बुरा कोई ना होगा"
माधव के इतना कहते ही रमा की आंखों से झर-झर ऑंसू बहने लगे और जैसे ही माधव की नजर रोती हुई रमा पर पड़ी वो शांत हो गया और मुँह फेरकर खड़ा हो गया....रमा तेज़ी से नीचे की ओर भागी। लेकिन वंशी वहीं चुपचाप खड़ा रहा...
"अब तुमसे क्या आग्रह करना पड़ेगा जाने के लिए" माधव मुँह फेरे- फेरे ही बोला
"आग्रह क्यों करोगे...कुछ रही बची है तो वो भी सुना लो"
वंशी ने कहा तो माधव उसकी और पलटा..और जैसे ही वंशी को घूरकर देखा वंशी कमरे से भाग खड़ा हुआ।
"मुझे माफ़ कर दो रमा...माफ कर दो...तुम स्कूल से आने के बाद भी ...घर का काम करती हो और मेरे कपड़े, बुआ का ख्याल...और आज मेरा कमरा साफ किया...मेरे कानों ने आज तक नही सुना कि तुम थक गई हो..या मन नहीं तुम्हारा...इतना ख्याल और इतनी सेवा...और बदले में मैंने क्या दिया... फटकार...मुझे माफ़ कर देना...माफ कर देना रमा" माधव ने दुखी होकर खुद से ही कहा
"रमा क्यों रो रही है...क्या हुआ..." रमा को रोते देख सुशीला ने पूँछा वो सत्संग करने घर के बाहर गयी हुईं थीं।
"कुछ नहीं..." रमा सुबकते हुए बोली
"कुछ नहीं हुआ तो रो क्यों रही है"
"घर की याद आ गयी थी" रमा ने कहा तो सुशीला ने उसके सिर पर प्यार से थपकी देना शुरू कर दिया।
"भईया ने बीबी जी पर चिल्ला कर बिल्कुल ठीक नहीं किया" वंशी ये सब देख कर बुदबुदाया ।
***
रमा के भजन गाने की आवाज कानों में पड़ी ...तो माधव हड़बड़ा कर उठा और ये सोचकर उसके चाय लाने से पहले ही कमरे से निकल जाना चाहिए...वो तेज़ी से नीचे भागा...और रमा जब तक चाय का कप लेकर पहुँची...माधव बाथरूम में घुस गया।
"वंशी खाना बन गया क्या" ? माधव ने तैयार होकर पूँछा
"ये लीजिये"...रमा ने मुस्कुराते हुए थाली उसकी ओर बढ़ा दी।
'कल डाँट लगा दी थी तुम्हें..और तुम नाराज होने की वजाय खाना दे रही हो...कैसे माफ करूँगा मैं खुद को' माधव मन ही मन बोला
"क्या हुआ? वंशी भइया ने ही बताया कि आलू के परांठे पसंद हैं आपको..लीजिये" रमा ने माधव को चुप देखकर फिर कहा
'नहीं...खाने का वक़्त नहीं...जल्दी जाना है आज" बिना नजर मिलाए माधव ने कहा और बाहर निकलते हुए बुदबुदाया
'तुझे सज़ा मिलनी चाहिए माधव...ख़बरदार जो कुछ खाया आज तूने'
रमा हाथ में खाने की थाली पकड़े चुपचाप उसे जाते हुए देखती रही।
***
"वंशी...घर में कदम रखने के साथ ही माधव ने आवाज लगा दी। और रमा बिना देर किए सीधे रसोई की ओर दौड़ी
"नहीं तुम रहने दो रमा...मेरे लिए वंशी चाय बना देगा ..तुम अपनी पढ़ाई पर ध्यान दो...ये देखो किताबें लाया हूँ तुम्हारे लिए.."कहते हुए माधव ने कुछ किताबें सुशीला के पास चारपाई पर रख दीं। रमा ने किताबें देखीं तो पास आकर उन्हें उलटने-पलटने लगी। माधव वहाँ से हटकर जाने लगा
" तो ..कब से पढ़ायेंगे अर्थशास्त्र.." रमा ने अर्थशास्त्र की किताब माधव को दिखाते हुए पूँछा
'मैंने वादा किया था तुमसे कि अर्थशास्त्र पढाऊँगा तुम्हें...मन खुशी में मयूर बन के नाचने लगता था जब भी सोचता कि तुम पास बैठोगी मेरे और मैं तुम्हें अर्थशास्त्र के सिद्धांत सिखाते-सिखाते तुम्हारे पास होने का सुखद एहसास महसूस करूँगा'
"क्या हुआ...आप को याद है ना आपने वादा किया था" माधव को चुप देख , रमा ने फिर से पूँछा और माधव बिना कुछ बोले बस्स सिर हिलाते हुए अपने कमरे में आकर बैठ गया...
**
बच्चे आपस में बातचीत करने में मशगूल थे..कुछ बच्चे यूँ ही उछल-कूद में...सब अध्यापक और अध्यापिकाएं भी आपस की बातचीत में मशगूल थे..और लाइब्रेरी में बैठे माधव की नजर कॉलेज के खाली मैदान में एक दाना खाती गिलहरी पर ऐसे टिकीं थीं जैसे उस पर जम गयीं हों...
"कहाँ खोए हो ...चुप रहने लगे हो आजकल.. माधव जी" सह अघ्यापक गौतम ये कहते हुए माधव के सामने बैठ गया
"उम्म...नहीं तो...बस्स ऐसे ही" चौंकते हुए माधव ने जवाब दिया
"जरूर कोई तो बात है...ना बताओ वो तुम्हारी मर्ज़ी" एक कॉपी खोलते हुए गौतम मुस्कुरा कर बोला और कुछ लिखने लगा। गौतम थोड़े भरे शरीर वाला लगभग उसी की उम्र का होगा, घुंघराले बालों वाला गौतम गोल भरे चेहरे पर एक काले फ्रेम का चश्मा लगाता और ज्यादातर कुर्ता पायजामा पहनता।
"क्या लिख रहे हो ..." गौतम को लिखते देख...माधव ने यूँ ही पूँछा
"बस्स कुछ नोट्स बना रहा हूँ..." किताब में देखते हुए गौतम ने जवाब दिया। तो माधव के मन में एक विचार कौंधा क्यों ना इससे ही रमा को अर्थशास्त्र पढ़ाने को बोल दूँ ...मैं तो पढ़ा नहीं सकता और गौतम एक बहुत शांतप्रिय लड़का है..रमा को बहुत अच्छी तरह से पढ़ा देगा..बुआ को भी तकलीफ नहीं होगी...रमा की पढ़ाई भी हो जाएगी...और ...मैं...मैं
'हां तुम?' उसने खुद से पूँछा ...मेरा क्या ..रमा को पढ़ते देख खुशी ही होगी ..वो जबर्दस्ती मुस्कुराया
"क्या तुम्हारे पास ग्रेजुएशन में इकोनॉमिक्स था गौतम" माधव ने पूँछा
"हाँ ...था .बल्कि मेरे नम्बर भी अच्छे आये थे लेकिन मुझे हिंदी ज्यादा पसंद थी..इसलिए हिंदी का प्रोफेसर बना" गौतम मुस्कुरा कर बोला
"एक ग्रेजुएशन की स्टूडेंट है..डरती है इकोनॉमिक्स से ..मुझे यकीन है तुम उसे पढ़ा सकते हो...अगर उसे पढ़ा दो ...तो एहसान मानूँगा तुम्हारा गौतम"
"कौन है?"
"है एक दूर की रिश्तेदार" माधव कहीं खोया सा बहुत धीमी आवाज में बोला
"इतना भरोसा जता ही दिया है आपने..तो चुनौती स्वीकार करता हूँ" गौतम हँस कर बोला
***
"वंशी..." आवाज देने के साथ ही माधव, गौतम को लेकर अंदर आया
"ये गौतम हैं...रमा को अर्थशास्त्र पढ़ाने आएंगे कल से" माधव ने बिना किसी की ओर देखे कहा फिर भी खुद के चेहरे पर उसे रमा की नजर चुभती हुई सी महसूस हुई
"कल कितने बजे से आना है" गौतम ने रमा और सुशीला की ओर नमस्ते की मुद्रा में हाथ जोड़ते हुए पूँछा
"तीन से चार बजे का समय ठीक रहेगा..फिर जैसा रमा और बुआ जी कहें" जल्दी से बोलकर माधव अपने कमरे में चला गया।
मुश्किल से दस मिनट ही बीते होंगे कि रमा चाय का कप लिए कमरे के दरवाजे पर खड़ी थी। माधव उसे देखकर कुछ नहीं बोला
"आपने तो कहा था कि आप पढ़ाएंगे मुझे" कप रखते हुए रमा ने पूँछा
"वो...आ...वो" उसे शब्द नहीं मिल रहे थे
"बिना पूँछे कमरे की सफाई की... इसलिए अब तक नाराज हैं..?"
"ऐसी बात नहीं रमा...बस्स कुछ ट्यूशन पढ़ाना शुरू की हैं
तो समय की कमी है मेरे पास.....गौतम बहुत होशियार है...और तुम्हें बहुत अच्छा पढ़ायेगा..बस्स मन लगाकर पढ़ो"
रमा चुपचाप सुनती रही और बिना कुछ बोले नीचे चली गयी।
***
माधव ने अपनी बेचैनी मन को शांत करने के लिए सच में न ट्यूशन पढ़ाना शुरू कर दिया ...ढ़ाई से तीन बजे के बीच आता तो उसे रमा, गौतम के सामने बैठी पढ़ती हुई दिखती...और लाख मना करने के बाबजूद ट्यूशन के बीच से उठकर माधव को चाय का कप दे आती। वो बात अलग है माधव बोलता कुछ ना था। जितना हो सकता था उसने रमा से दूरी बना ली थी। बहुत जरूरी होता तब ही बोलता था।
वंशी और रमा ने माधव में ये बदलाव महसूस कर लिया था । लेकिन दोनों में से कोई भी पूछने की हिम्मत नहीं कर पा रहे थे और ना ही माधव उन्हें पूँछने का कोई मौका दे रहा था। घर से जल्दी जाता और देरी से आता...कभी सुबह जब रमा जल्दी चाय देने आ जाती तो माधव जागता भी होता तो रमा के आते ही आँखे बंद कर लेता। वंशी के सामने आते ही अतिरिक्त व्यस्त होने का दिखावा करता। माधव के इस बदले व्यवहार से कोई खुश था तो बस्स सुशीला..उन्होंने रोज़ सत्संग में जाना शुरू कर दिया था। खुश रहने लगीं थी और अक्सर बाजार भी जाने लगीं थीं।
लगभग बीस से पच्चीस दिन ऐसे ही गुजर गए।
माधव को लगातार दुखी रहने और मन ही मन घुटते रहने के कारण बुखार आ गया। घर आकर डॉक्टर जैसे ही उसे देखकर गया।
तो वंशी से नहीं रहा गया।
"हो क्या गया है तुमको?" वंशी ने उसे दवा देते हुए पूँछा
"अब बुखार कोई जानबूझकर तो नहीं कर लिया मैंने ?" माधव चिढ़ते हुए बोला
"किसे बना रहे हो...अच्छी तरह जानते हो मैं बुखार की बात नहीं कर रहा...ना बोलते हो...ना हँसते हो...हमेशा उदास और व्यस्त ही रहते हो"
"वो ट्यूशन कर ली हैं ना तो बस्स "
"तो किसने कहा था ट्यूशन करने को...बीबी जी से भी बात नहीं करते हो ..कुछ तो बात है..मुझसे तो कहो"
उसी वक़्त रमा आकर दरवाजे पर खड़ी हो गयी
"कहा ना कोई बात नहीं है" माधव नजरें फेरते हुए बोला...
"ठीक है मत बताओ...मेरा नाम भी वंशी है...ना उगलवा लूं तो कहना" थोड़े दंभ में बोलते हुए वंशी ने खुद के गले में पड़े मफलर का एक सिरा पूरी ताकत से गर्दन के पीछे फेंका और तेज़ी से सीढ़ियां उतर गया
"सूजी का हलवा है..वंशी भईया ने बताया कि बुखार में आपको अच्छा लगता है" रमा ने हलवा की प्लेट माधव के सामने रखते हुए कहा...
"हम्म" कहकर माधव ने नजरें दूसरी ओर फेर लीं तो रमा दुखी होकर कमरे से बाहर निकल आयी।
'तुम्हें देखकर ही जीवित हूँ...और तुम्हें ही अनदेखा कर रहा हूँ...रमा...मुझे माफ मत करना .. तुम तो नाराज भी नहीं होती...अगर नाराज होकर भला- बुरा बोल दो तो इस मन का बोझ कुछ तो हल्का हो' माधव उसे जाते देख मन ही मन बोला
***
दूसरे दिन बुखार कुछ हल्का हुआ तो सबके रोकने के बाबजूद भी माधव कॉलेज चला गया ...और छुट्टी के बाद कॉलेज से बाजार चला गया। और एक चांदी का चूड़ी रखने का बॉक्स ले आया।
घर का दरवाजा बंद था तो खटखटाने के लिए उस पर हाथ रखा ही था कि गौतम की आवाज सुन कर अपना हाथ बापस खींच लिया। और किवाड़ की दरार से झाँक कर देखने लगा।
"रमा, प्रेम तो तुमसे चंद मुलाकातों के बाद ही हो गया था...फिर सोचा कितनी सुंदर और समझदार हो तुम ...और मैं तो इतना साधारण...इसलिए हिम्मत नहीं कर पा रहा था...लेकिन अब...अब तो जीना मुश्किल लगता है तुम्हारे बिना...सोच लो कोई जल्दी नहीं ...आराम से जवाब दे देना"
कहते हुए गौतम ने रमा की ओर एक गुलाब का फूल बढ़ा दिया।
ये देख और सुनकर बाहर खड़े माधव का चेहरा गुस्से से तमतमाने लगा
" कमीने तेरी इतनी हिम्मत..मार डालूँगा तुझे गौतम के बच्चे ....तू मेरी रमा को ..." गुस्से से बुदबुदाते माधव का चेहरा तब फीका पड़ गया जब रमा ने कोई जवाब नहीं दिया और रमा अपनी नजरें फूल पर गड़ाए थी
'नहीं रमा फूल स्वीकार मत करना...मत करना स्वीकार..मर जायेगा तुम्हारा माधव' किवाड़ की दरार से झांकते हुए माधव घबराकर बुदबुदाया
"कम से कम इस फूल को तो स्वीकार कर लो...फिर चाहे जो निर्णय लो... तुम्हारी मर्ज़ी" गौतम ने ये कहते हुए फूल रमा की ओर बढ़ा दिया। और रमा ने सकुचाते हुए गौतम से फूल ले लिया।
ये देख माधव कुछ पल तो आँखे खोले जड़ बना खड़ा रहा फिर उसने दीवार पर पूरी ताकत से अपना हाथ मारा और दीवार पर लगी कील उसकी हथेली को पार करती बाहर निकल आयी और उसके मुँह से एक चीख निकल गयी।
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