Ek Jindagi - Do chahte - 39 in Hindi Motivational Stories by Dr Vinita Rahurikar books and stories PDF | एक जिंदगी - दो चाहतें - 39

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एक जिंदगी - दो चाहतें - 39

एक जिंदगी - दो चाहतें

विनीता राहुरीकर

अध्याय-39

सबके दिल इस कहानी को सुनकर भारी हो गये थे। बहुत देर तक फिर सब मिलकर इधर-उधर की हल्की-फुल्की बातें करके अपना मन बहलाने की कोशिश करते रहे। रात के नौ बज रहे थे। सब लोग बहुत थके हुए थे, खाना खाने जाने का किसी का भी मन नहीं कर रहा था। अनील और शमशेर मेस में जाकर दो थालियों में सबके लिए सब्जी रोटी ले आए। सबने उन्हीं थालियों में से थोड़ा बहुत खाया।

जिनकी रात की ड्यूटी थी वे सब ड्यूटी पर चले गये। बाकी लोग अपने-अपने पलंगों पर सोने चले गये।

परम को अब जाकर तनु की याद आयी। आज तो उससे बिलकुल ही बात नहीं हो पायी। शाम को उससे कहा था कि थोड़ी देर में बात करता हूँ और फिर भूल ही गया। वो उठकर बाहर आ गया और बाहर टहलते हुए तनु से बातें करने लगा।

''क्या बात है, इतना बिजी कहाँ हो गये थे आज।" तनु ने पूछा।

''अरे कुछ डॉक्यूमेंट हेड क्वार्टर ले जाने थे। वही लेकर निकल गया था। बॉस साथ में था, रास्ते भर डिस्कशन करते जा रहे थे तो फोन उठाना भी अच्छा नहीं लगा तो बात ही नहीं कर पाया। तू क्या कर रही है।" परम ने पूछा वो तनु को अपने एनकाउंटरों के बारे में कभी नहीं बताता था। तनु को पता था परम के काम के बारे में लेकिन फिर भी वर्तमान दिन में अगर वो ये सुनेगी कि परम ने ओपन फायरिंग का सामना किया तो बेकार में डर कर तनाव में घिर जायेगी।

''कुछ नहीं जी बस किताब पढ़ रही हूँ और क्या करूँगी।" तनु का स्वर बहुत बुझा-बुझा सा था।

''क्या बात है, इतनी थकी हुई क्यों लग रही है।" परम उसकी आवाज में इतनी ज्यादा थकान सुनकर घबरा गया क्योंकि चाहे कितनी भी भागादौड़ और काम का बोझ क्यों न हो परम से बात करते हुए तनु हमेशा उत्साह में रहती थी। उसकी आवाज में खुशी छलकती थ्ी।

उसी तनु की आवाज आज इतनी बुझी हुई।

''कुछ नहीं बस सिर थोड़ा भारी लग रहा है।" तनु ने जवाब दिया।

''तो किताब क्यों पढ़ रही है जानू। लाईट बंद करके रिलेक्स कर।" परम प्यार से बोला।

''नींद नहीं आ रही थी तो सोचा थोड़ी देर किताब ही पढ़ लूं शायद नींद आ जाये।" तनु ने कहा।

''शाम को खाना खाया था?" परम ने पूछा।

''हाँ बाबा दयाबेन को जो पहरे पर बिठा रखा है। मजाल है कि वो मुझे बिना खाये रहने दे।" तनु हँसकर बोली।

''मेरा सोना, मेरा बच्चा, मेरी बुच्ची, मेरी लाल मिर्च।" परम ढेर सारे लाड़ से बोला ''तेरी बहुत याद आती है रे, बहुत बेचैनी होती है।"

एक-सवा घंटा परम तनु से बातें करता रहा। फिर उसने तनु को आराम करने को कहा।

''लव यू, गुडनाईट, सुबह फोन करता हूँ हाँ।" परम ने कहा।

''लव यू टू जी। गुडनाईट।" तनु ने कहा।

परम दो क्षण हाथ में मोबाइल को देखता खड़ा रहा। जब भी तनु से बात होती है परम अपने मोबाइल फोन के प्रति गहरी कृतज्ञता और प्रेम महसूस करता। ये फोन नहीं होता तो तनु से बातें ही नहीं हो पातीं ना प्यार का इजहार कर पाता न आज तनु उसकी पत्नि के रूप में उसके जीवन में होती।

परम गाडी से टिक कर खड़ा होकर सोचने लगा। जब वो ड्यूटी पर है तो तनु से, उस घरेलू दुनिया से कितनी दूर है, एकदम अलग-अलग दूसरी दुनिया में पहुँच गया है। पता नहीं वो दिन कब आयेगा जब दोनो दुनिया एक हो जायेंगी और वो अपनी ड्यूटी निभाते हुए तनु के साथ रह पायेगा।

वो रूम की ओर बढऩे लगा ताकि थोड़ा सो सके। तभी उसका ध्यान गया, दूर के एक पेड़ के पीछे एक मानव आकृति पेड़ के तने से टिक कर खड़ी थी। उसकी पीठ अैर कंधे का जरा सा हिस्सा दिख रहा था। यहाँ इतनी निश्चिंता से खड़ा है तो अपना ही बंदा होगा। यही सोचकर परम बेधड़क उसकी और बढ़ गया। पेड़ के पीछे तक जाकर देखा तो यहाँ अर्जुन खड़ा था। परम ने देखा कि जबसे नकुल की कहानी सुनाई थी विक्रम ने तभी से अर्जुन अनमना सा हो गया। दिल पर असर तो सबके हुआ लेकिन अर्जुन एकदम स्तब्ध सा हो गया था।

''क्या बात है अर्जुन तुम अचानक इतने परेशान से क्यों हो गये।" परम ने पास जाकर पूछा।

''कुछ नहीं ऐसे ही।" अर्जुन ने भारी स्वर में उत्तर दिया।

''नकुल की कहानी दिल को छू गयी न? सच में वो राजपूत रेजीमेंट की शान है। अपनी बहादुरी से उसने राजपूत रेजीमेंट का नाम ऊंचा कर दिया।" परम ने भावुक स्वर में कहा।

''हो वो राजपूत रेजीमेंट की शान है सर। उसकी कहानी मेरी अपनी ही कहानी है।" अर्जुन ने उसी भारी स्वर में उत्तर दिया"

क्या? तुम्हारी अपनी कहानी? परम चौंक कर बोला। तुम भी कभी ऐसे किसी एनकाउंटर का हिस्सा रहे हो क्या जिसमें कोई केजुअल्टी हुई हो।"

अर्जुन गहरी निगाहों से दो क्षण परम को देखता रहा फिर बोला ''नकुल मानसिंग राठौर पिता मानसिंग राठौर। अर्जुन मानसिंग राठौर पिता मानसिंग राठौर।"

परम बुरी तरह से चौंक गया। आज तक अर्जुन को सब अर्जुन ही बोलते आए थे कभी भी उसका पूरा नाम किसी ने नहीं पूछा न उसने बताया। डेढ़-दो महीने हो गये थे उसे इस यूनिट में आए लेकिन ये सच्चाई किसी को भी नहीं पता थी।

तभी, परम को ध्यान आया आला अफसर भी अर्जुन के साथ एक अलग ही अदब से बात करते थे।

''ओह।" परम के मुँह से एक गहरी आह निकली।

''बहुत प्यार था हम दोनो भाईयों में, आपस में भी और अपनी जननी माँ और भारत माँ के साथ भी। बहुत तिलमिला जाता था वो देश पर होते अत्याचारों को देखकर। अपनी जान लगा देता था मिलिटैंट्स या देश को नुकसान पहुँचाने वाले आसामाजिक तत्वों को मिटाने में।

तभी उसके शहीद होने के बाद मैंने प्रण लिया कि उसका अधूरा काम मैं पूरा करूँगा। मैंने डेढ़ साल निशानेबाजी की कड़ी ट्रेनिंग ली और फिर अपनी पोस्टिंग यहाँ करवाई।" अर्जुन ने बताया।

''हम सब तुम्हारे साथ है।" परम ने उसके कंधे पर हाथ रखकर उसे आश्वासन दिया। ''कभी तुम्हे देखकर यह अहसास ही नहीं हुआ कि तुम अपने सीने में इतना बड़ा दर्द छुपाए हो। कैसे हर समय मुस्कुराते हुए और इतना स्थिर रह लेते हो।"

''जो लोग जिंदगी की कीमत को पहचानते हैं वो लोग दर्द को तवज्जो नहीं देते। जिंदगी हमेशा एक कंधे पर सुख और एक कंधे पर दर्द रखकर चलती है। यह इनसान पर निर्भर करता है कि वह किसका अहसास ज्यादा करते हैं। जो लोग दुुनिया में, अपने जीवन में हमेशा दर्द की वजहें ही खोजते रहते है वो उम्र भर दु:खी रहते है। मेरे हिसाब से तो ऐसे लोगों को कोई दर्द होता ही नहीं है। क्योंकि जो लोग सचमुच में ही किसी दर्द से गुजरते है वो जिंदगी के हर पल की कीमत को पहचानते है और उसे जीना सीख जाते है।" अर्जुन का स्वर सहज हो चला था।

''मैंने अपने जान से भी ज्यादा प्यारे भाई को खोया है, तभी मैंने अपनी जिंदगी के हर पल की कीमत को पहचाना। जो लोग अतीत के दर्द को साथ लेकर, अपने कंधे पर लादकर जिंदगी का रास्ता तय करते है उनके वर्तमान और भविष्य हमेशा निष्काम, निष्क्रिय दुख में डूबे रहते है।

मैं जीवन की कीमत को पहचानता हूँ तभी दुख को अपने दिल दिमाग पर हावी नहीं होने देता ताकि हमेशा स्थिर रहकर अपने भाई का सपना पूरा कर सकूं और देश के प्रति कर्तव्य को प्राणप्रण से निभा सकूं।"

परम गौर से सुनता रह गया। तनु भी हमेशा उसे दुखी देख कर यही कहती है कि सुख-दुख बस अहसास भर है और कुछ नहीं। आप मानो तो जीवन में दुख ही दुख है और मानो तो सब अच्छा है, सब और सुख ही सुख है।

लेकिन आज अर्जुन को देखकर वह फिर से सोचने पर मजबूर हो गया। परम हमेशा अपने घरवालों के, माता-पिता के भेदभावपूर्ण व्यवहार को लेकर अपने आपको दुखी मानता रहता था। लेकिन आज अर्जुन को देखकर उसने नये सिरे से सोचा। वह भाई से यथोचित प्यार और सम्मान न पाने के कारण दुखी रहा लेकिन अर्जुन जान से प्यारे भाई की मौत के बाद भी उसका गम लाद कर चलने की बजाए जीवन को सम्मान देकर जीजान से अपने कर्तव्य को पूरा करने में जुटा है।

परम अर्जुन के आगे नतमस्तक हो गया। दोनो रूम में आकर अपने-अपने पलंग पर लेट गये। उस रात भर परम अर्जुन के ही बारे में सोचता रहा।

***

तनु सुबह सोकर उठी तो उसका सिर भारी था और बहुत थका हुआ सा महसूस कर रही थी। साढे छ: बज गये थे लेकिन उसका मन नहीं कर रहा था उठने का। वह यूं ही पलंग पर पड़ी रही। सात बजे दयाबेन चाय बिस्किट लेकर तनु के कमरे में आ गयी। तनु सुबह जल्दी उठ जाती थी। आज दो बार दयाबेन कमरे में झाँक कर गयी तो तनु को सोते देखा। लेकिन सात बज गये तो वह चाय बनाकर उसके लिए कमरे में ही ले आयी।

''क्या बात है बिटिया आज अभी तक उठी नहीं। तबीयत तो ठीक है ना?" दयाबेन ने तनु के सिर पर हाथ फेरते हुए चिंतित स्वर में पूछा।

तनु चौंक कर उठ गई।

''ठीक है बस ऐसे ही जरा सा सिर भारी सा लग रहा था तो उठकर दोबारा सो गयी थी।"

''तभी रोज कहती हूँ रात में जल्दी सो जाया कर। देर रात तक किताबे पढती रहती हो। सिर तो भारी होगा ही।" दयाबेन ने तनु के सिरहाने पर पड़ी चार-पाँच किताबों के ढेर को देखते हुए कहा। ''लो चाय पी लो थोड़ा जी संभलेगा।"

तनु पलंग के सिरहारे से टिककर बैठ गयी और चाय पीने लगी जब चाय खत्म हुई तो दयाबेन ने उसे नीचे बगीचे में झूले पर जाकर बैठने को कहा।

''थोड़ा ताजी हवा में बैठो जाकर सिर का भारीपन दूर होगा।"

''मुझे बहुत जोर से भूख लग रही है।" तनु अचानक बोली।

''ठीक है में ढोकला बनाकर लाती हूँ।" दयाबेन चाय की ट्रे उठाकर नीचे जाने लगी।

''नही ढोकला नहीं खाना मुझे।" तनु ने मुँह बनाते हुए कहा। ''मेरा उपमा खाने का मन कर रहा है।"

''उपमा खाने का?" दयाबेन ने आश्चर्य से पूछा ''ठीक है अभी बनाती हूँ।"

तनु नीचे चली गयी और बगीचे में जाकर झूले पर बैठ गयी। झूले पर बैठते ही उसे परम की याद आ गयी। कैसे दोनो सुबह सवेरे यहाँ बैठकर साथ में चाय पीते थे, बाते करते थे, फिर उठकर साथ में खाना बनाते थे।

तनु की आँख अचानक भर आयी। कुछ दिनों से परम की याद के साथ ही अजीव सी बेचैनी दिल में छायी रहती। परम की याद तो हमेशा ही आती रहती है लेकिन अभी दिल में एक अजब सी विकलता रहती। दिल बार-बार भर आता था। तनु कभी भवनात्मक रूप से कमजोर महसूस नहीं करती थी लेकिन पिछले आठ-दस दिनों से उसे पता नहीं कैसी कमजोरी या भावनात्मक असुरक्षा सी लग रही थी कि उसका मन करता रहता कि परम उसके पास बैठा रहे और वह उसके कंधे पर सिर रखकर चुपचाप बैठी रहे।

या परम उसका सर अपने सीने पर रखकर उसके बालों में, सिर पर हाथ फेरता रहे। तभी परम का फोन आ गया। तनु की आँख से तभी एक आंसू निकला ही था। उसने जल्दी से आँखें पोंछी और अपनेआप को संयत करते हुए फोन उठाया।

तनु ने अपनी आवाज को भरसक संयत करने का प्रयत्न करते हुए कहा ''हैलो।"

''क्या कर रही हो?" उधर से परम ने पूछा ''सिर दर्द ठीक हुआ की नहीं? नींद आ गयी थी रात में?"

''बस अभी आकर झूले पर बैठी हूँ। सिरदर्द अभी ठीक है। रात में आ गयी थी नींद।" तनु ने आवाज को सामान्य बनाते हुए कहा।

''लेकिन तुम्हारी आवाज तो अभी भी थकी हुई लग रही है।" परम ने कहा।

''ऐसा कुछ नहीं है जी। अब ठीक हूँ।" तनु ने हँसते हुए कहा।

''ए तनु तेरा मेरा रिश्ता ऐसा है कि जिसमें कुछ कहने की जरूरत नहीं पड़ती। दिल तेरा धड़कता है अहसास यहाँ होता है। दर्द तुझे होता है दिल यहाँ मेरा तड़पता है। तू भले ही कहे कि कुछ नहीं हुआ लेकिन मेरा दिल यहाँ डूब रहा है तेरी आवाज सुनकर" परम व्याकुल स्वर में बोला।

''आप परेशान मत होईये जी। जरा सी थकान है। हो जाता है कभी-कभी। चिंता की कोई बात नहीं है।" तनु ने उसे दिलासा दिया।

''क्या चिंता की बात नहीं है यार। कहा न तुझे कुछ भी हो तो मेरा दिल बर्दाश्त नहीं कर सकता। तू आज ही डॉक्टर को जा कर दिखा। मेरा दिल घबरा रहा है।" परम के स्वर में चिंता, व्याकुलता, व्यग्रता सब था।

अबकी बार तनु को सच में हँसी आ गयी। ''अरे बाबा इतना परेशान मत होईये। डॉक्टर के यहाँ जाने जैसा कुछ नहीं है।"

''तुझे हँसी आ रही है और यहाँ तेरी आवाज सुनकर साला मेरा दिल डूब रहा है। नहीं तू आज ही डॉक्टर के यहाँ जायेगी मतलब जायेगी। और इसमें अब कुछ भी चेंज नहीं होगा। ठीक है न?" परम ने कहा।

''हे भगवान। अरे आप फौज के मजबूत ऑफीसर होकर भी इतनी जल्दी परेशान हो जाते हैं।" तनु अब भी हँस रही थी।

''देख तनु डरता तो मैं अपनी मौत से भी नहीं हूँ लेकिन तुझे तो पता है न कि तुझे इतना सा भी कुछ हो जाये मैं सह नहीं पाता। सो प्लीज जानू गो एण्ड कन्सल्ट अ डॉक्टर।" परम ने प्रार्थना भरे स्वर में कहा।

''ओ.के.जी। दिखा आउंगी।" तनु ने उसे भरोसा दिलाया।

''अपना ध्यान रखना। तुम्हारी जान मेरी अमानत है समझी। तुम्हारे ही सहारे धरती पर इस परम नाम के प्राणी की सांसे चलती है।" परम ने भावुक स्वर में कहा।

''मैं जानती हूँ जी।"

''चल थोड़ा आफिस का काम कर लूँ फिर कॉल करता हूँ। तुम अपना ध्यान रखो ओ.के.मेरा सोना। चल लव यू बाय।" परम ने कहा और फोन डिस्कनेक्ट कर दिया।

तभी दयाबेन एक प्लेट में उपमा लेकर बाहर आई और तनु को दी। उपमा देखकर तनु को याद आया कि उसे पता नहीं क्यों जोरों की भूख लगी थी। वह प्लेट लेकर खाने लगी।

''ऑफिस जाओगी या घर पर ही आराम करोगी?" दयाबेन ने पूछा। ''चली जाती हूँ। वहाँ जाकर काम करने लगूंगी तो मन लग जायेगा।" तनु ने जवाब दिया।

''देखो अगर थोड़ी भी थकान लगती है तो वापिस आ जाना। वहीं बैठी मत रहना।" दयाबेन ने कहा।

''ठीक है।"

दयाबेन किचिन में चली गयी ताकि तनु के लिए दोपहर का खाना बना सके। अपनी उपमा खत्म करके तनु भी वहीं आ गयी और फ्रिज से सब्जी, फल निकालने लगी।

''मै कर लूँगी। तुम जाकर आराम करो थोड़ी देर।" दयाबेन ने प्यार से कहा।

''नहीं भूख ही लगी थी। उपमा खा लिया अब ठीक लग रहा है।" तनु ने कहा और फल सब्जियाँ काटने लगी।

दस बजे तैयार होकर तनु ऑफिॅस चली आयी। ड्रायवर उसे लेने आ गया था। ऑफिस आते ही अनूप के साथ हँसी मस्ती में और काम में दिन निकल गया। शाम को तनु ऊपर भरत भाई के साथ बैठी थी कि अचानक बोली -

''मुझे रसगुल्ला खाना है।"

''क्या?" भरत भाई ने आश्चर्य से पूछा।

''मेरा रसगुल्ला खाने का मन कर रहा है।" तनु ने कहा ''मेरे लिए मंगवाईये ना।"

''मंगवाता हूँ बाबा अभी मंगवाता हूँ।" भरत भाई उसकी व्यग्रता देखकर हँसने लगे। उन्होंने तुरंत चपरासी को बुलवाकर उसे ड्रायवर के साथ बाजार जाकर रसगुल्ले लाने को कहा।

''आज क्या हो गया हमारी बिटिया को अचानक रसगुल्ले खाने का मन कर गया।" भरत भाई ने पूछा। क्योंकि खाने की किसी चीज के लिए शायद ही कभी तनु ने फरमाईश की होगी।

''बस ऐसे ही।" तनु ने जवाब दिया।

''क्या बात है तुम थकी-थकी सी लग रही हो।" भरत भाई ने उसे गौर से देखते हुए पूछा।

''कुछ नहीं ठीक हूँ पिताजी।" तनु ने कहा।

चपरासी ने रसगुल्ले लाए और दो बाउल में डालकर भरत भाई और तनु को दिये।

तनु तीन-चार रसगुल्ले गपगप खा गयी।

***