एक जिंदगी - दो चाहतें
विनीता राहुरीकर
अध्याय-26
तनु को ऑफिस में छोडकर परम अपने चाचा के घर की ओर निकल गया। रास्ते भर मन में विचारों का तूफान उठता रहा। एक मन कह रहा था जो लोग तुझे समझने को तैयार ही नही है क्यों उनके पीछे अपना समय और दिमाग खराब कर रहा है। तुझे तेरा मनचाहा मिल ही गया है अब छोड दे भूल जा पुरानी बातों को।
लेकिन दूसरा मन नहीं मानता। अपना मनचाहा मिलने का अर्थ यह थोडे ही होता है कि बाकी सब को, जनम के रिश्ते को भुला दिया जाये। जीवन का अर्थ ही नये संबंध जोडना और सबको साथ लेकर चलना है। अगर उसने भी सबको छोड दिया तो हमेशा के लिए सबकी नजरों में गलत बनकर रह जायेगा। और परम जब अपनी नजरों में गलत नहीं है तो सबकी नजरों में गलत बनकर क्यों रहे। नहीं वो अपनी पसंद को पूरे घर परिवार की पसंद बनाएगा। अपने निर्णय को पूरे परिवार से मान्य करवाएगा।
तभी अपने निर्णय पर से उसे तनु की याद आयी। परम में निर्णय लेने की शक्ति की कहाँ थी। वो तो तनु को दिलो जान से चाहता था। बस। और सारी उम्र उससे सिर्फ फोन पर बात करके भी खुश रह सकता था। अपनी भावनाओं को इच्छाओं को लोगों के सामने कह पाने, अभिव्यक्त कर सकने का साहस ही कहाँ था परम में। वो तो तनु को कह कर ही खुश था। ये तो तनु ही थी जो अपनी भावनाओं को घर-परिवार, समाज में सम्मान दिलाने का साहस रखती थी। उसे किसी भी बात को छुपाने या चोरी छुपे करने से नफरत थी। अगर उसने प्यार किया है तो अपने प्यार को उसी रूप में पूरी सच्चाई के साथ दुनिया के सामने स्वीकारने का साहस भी उसे तनु ने ही दिया। तभी आज वह और तनु एक सुंदर और प्यारे रिश्ते में बंधकर अपना घर बसा पाए है। वरना परम आजीवन भटकता ही रह जाता।
चाचा का घर आ चुका था। परम ने बिल्डिंग के पार्किंग में गाडी खडी की और लिफ्ट की ओर बढ गया। चैथी मंजिल पर तीसरा फ्लैट चाचा का था। परम फ्लैट की ओर बढ़ा। चाचा के नाम की नेमप्लेट लगी थी, ''सतीश गोस्वामी"। परम ने कॉलबेल बजाई। दो ही मिनट बाद दरवाजा खुला। सामने चाची थी। परम को देखकर वो किंकर्तव्यविमूढ़ रह गयी। परम उन्हें प्रणाम करके अंदर चला गया। ''कैसी है आप" परम ने पूछा।
''ठीक हूँ।" चाची ने संक्षिप्त उत्तर दिया।
''चाचा दिखाई नही दे रहे।"
''वो आफिस गये है। "
''ओह!" परम को याद आया। वह छुट्टी पर है तो क्या बाकी दुनिया भर के लोगों के दफ्तर बंद थोडे ही हो जायेगें। और तभी उसे अफसोस हुआ वह बिना सोचे बिचारे ही यहाँ चला आया। आना ही था तो कम से कम किसी दिन शाम को आता ताकि चाचा से तो मुलाकात होती। लेकिन अब क्या हो सकता था। परम ड्राईंगरूम में सोफे पर बैठ गया और औपचारिक बातें करने लग गया। पिछली बार छ: महीने पहले जब वो यहाँ आया था तो चाचा घर पर थे। तब चाचा ही बात करते रहे थे चाची आखिर तक कमरे का दरवाजा बंद करके अंदर ही बैठी रही थी मानों उन्हें परम की सूरत से भी नफरत हो गयी हो। आज चाचा नहीं है तो चाची को मजबूरन सामने बैठना पड़ा है।
''अब तक नाराज हो?" परम ने आर्द्र स्वर में पूछा।
चाची चुपचाप ड्राईंग रूम में पता नही किस कोने में शून्य में ताकती बैठी रही। उनका चेहरा तनाव की लकीरों में खिंचा हुआ था। परम समझता था कि यह तनाव उनकी दीदी अर्थात परम की माँ की वजह से है। जब माँ ही बेटे से मूँह मोड़ बैठी है तो चाची की क्या मजाल जो वो उसका चेहरा देख ले।
''जीवन भर आप लोग मेरी मर्जी के खिलाफ काम करते रहे मेरी ईच्छाओं को मारकर अपनी इच्छाएँ मुझ पर थोपते रहे लेकिन मैं चुपचाप सहता रहा। मैंने तो आप लोगों को छोड नहीं दिया। आप से नफरत नहीं करने लगा। और पूरी उम्र में मैंने बस एक काम आपकी मर्जी के खिलाफ कर दिया तो आप लोगों के दिलों को इतनी ठेस लग गयी, कि आप मुझसे बात ही नहीं करना चाहती। मेरी मर्जी के विपरीत काम करने पर यदि मैं भी आपके साथ ऐसा ही करता तो" परम के स्वर में अफसोस था वह कड़वी सच्चाई बोलने से खुद को रोक नही पाया।
चाची के चेहरे पर कहीं तनाव की रेखाएँ पिघलती हुई लगी।
''नौकरी लगने के बाद अगर मैं चाहता तो कभी भी घर वापस नही लौटता। क्योंकि मैं इतना कमा लेता था कि पूरी जिंदगी मजे से गुजर जाती। लेकिन मैं फिर भी हमेशा घर परिवार से बंधा रहा क्योंकि मंै आपसे प्यार करता था। मैं जिंदगी भर आप सब की मर्जी पर अपनी खुशियाँ कुरबान करता रहा लेकिन आप सब मेरी एक खुशी पर अपनी मर्जी नहीं दे सकते। मेरी तनु, मेरी खुशी को स्वीकार नहीं कर सकते?" परम क्षण भर रूक कर उनके चेहरे को देखता रहा। फिर आगे बोला-
''अरुण नाना याद है ना आपको। माँ के मामाजी। उम्र भर अपनी पत्नी को छोड़कर दूसरी औरत के प्रेम में पड़े रहे। पत्नी घर में जिंदगी भर घुटती रही और नाना उम्र भर सब लोगों से यही कहते रहे कि वो दूसरी औरत उनकी बहन जैसी है। जबकि सच्चाई सबको पता थी लेकिन अंदरूनी सच जानते हुए भी नातेदारों ने उन्हें घित्कारा नहीं, उनसे रिश्ता नहीं तोड़ा क्यों? क्या सिर्फ इसलिये कि उन्होने नानी को घर से बाहर करके दूसरी को घर में नहीं लाया। लेकिन आप ही बताओ चाची-नानी का जीवन क्या रहा। उम्र भर एक धोखे का रंग अपनी मांग में सजाकर उसकी आग में जलते हुए असमय ही काल के गाल में समा गयी। लेकिन अरुण नाना से किसी ने रिश्ता नहीं तोड़ा। माँ का तो उनसे खास लगाव था। अरुण नाना के झूठ ने उनकी पत्नी का रात-दिन का चैन, विश्वास, जीवन की खुशी, गृहस्थी का सुख सब छीन लिया और उसे तिल-तिल मरने को छोड दिया। वो हजम है आपको। एक बेवफा रिश्ते में घुटकर एक औरत की मौत मंजूर है। मगर कोई उसे घुटन से आजाद करना चाहे, उसे जीने के लिए स्वतंत्र करना चाहे तो स्वीकार नहीं है।
मैं भी अगर वाणी को घर में घुटता हुआ छोडकर उम्र भर दूसरी के प्यार में पड़कर आप सब से झूठ बोलता रहता, तब क्या आप लोग मुझे सिर आँखों पर बिठाकर रखते न? पर मैंने सबको धोखे में रखने की बजाए सच बोला, सच को स्वीकार किया तो बुरा हो गया। और अरुण नाना झूठ की छाँव में उम्र भर सबकी नजरों में भले बने रहे।" परम अफसोस से भरी एक गहरी सांस भरकर बोला।" कैसे मानसिकता है हमारे समाज की कि वह झूठ को तो सिर माथे बिठाकर रखता है लेकिन सच को नफरत की निगाह से देखता है। उससे मुँह मोड़ लेता है। एक इंसान को आप सच के साथ जीने नहीं देते।"
एक और गहरी साँस भरकर परम सोफे से उठ खडा हुआ। बैठने का और आगे बात करने का कोई फायदा नही था। आज के बाद शायद वह इस घर में दुबारा नही आयेगा। यह इस घर में आखरी बार का आना है। परम ने झुककर चाची के पैर छुए।
''चलता हूँ।"
''ऐसे कैसे जाएगा रे। छ: महीने बाद तो आया है बिना कुछ खिलाए तुझे घर से जाने दूँ? दुर्गा-दुर्गा।" चाची ने कानों पर हाथ रखते हुए कहा ''तुझे मेरे हाथ से बने संदेश बहुत पंसद है ना। हमेशा कहता था चाची तुम्हारे हाथों से बने संदेश में जो स्वाद है वैसा स्वाद तो माँ के हाथों में भी नही है। माँ की कृपा देख आज ही सुबह ताजे संदेश बनाए है। तू बैठ में अभी लाती हूँ।"
आँखों में भर आए पानी को छुपाकर चाची रसोईघर की ओर बढ़ गयी।
पाँच मिनट बाद एक थाली में संदेश और दो डिब्बे लेकर लौटी।
''ये ले बेटा तू खा ले और डिब्बे में भर कर दिये है साथ वो जाकर मेरी बहु को खिलाना कहना उसकी छोटी माँ ने दिये है।" चाची यानी सावित्री पल्लू से अपनी आँखें पोछते हुए बोली।
'' छोटी माँ।" परम ने सावित्री के दोनों हाथ पकड़ लिये।
''तू सही कहता है बेटा। पता नही क्यों हम लोगों की सोच ऐसी दोगली होती है। विवाहेत्तर संबंध तो हमारे गले उतर जाते है क्योंकि वह झूठ की चादर के नीचे छुपाकर रखे जाते है। सबको दिखते है पर सब ऐसा दिखावा करते है कि किसी को कुछ पता नही है। अपनी पत्नी से भी छल करते है और दूसरी की जिंदगी भी खराब करते हंै। लेकिन जो सच का साथ देते है उसे स्वीकार नहीं करते हैं, समाज के लोग उन पर थू-थू करते है। नहीं बेटा गलत हमी लोग थे। तूने तो सही काम किया है कि दो जिंदगियों को खराब होने से बचा लिया। " चाची ने संदेश परम के मुँह में डालते हुए कहा।
''और इस डिब्बे में संदेश है इसमें रोहू मछली के सिर का झोल है दोनों जन दोपहर के खाने में खाना।"
''तुम्हारी बहु मांस-मच्छि नही खाती छोटू माँ।" परम ने बताया।
'' ओ माँ?" सावित्री ने अपनी ठोडी पर हाथ रखा" तब तो बनाती भी नही होगी। फिर तू? तूझे भी मना करती है खाने से क्या?"
'' मुझे मना नहीं करती लेकिन उसके सामने मेरा ही मन नहीं करता खाने का। वहाँ ड्यूटी रहते हुए मेस में कभी बन जाता है तो खा लेता हूँ वरना नहीं।" परम ने बताया।
''धन्य है तू बेटा।" सावित्री ने दोनों हाथ माथे से लगाए।
''अच्छा छोटू माँ मैं चलता हूँ। तनु ऑफिस में है। खाने पर मेरी राह देख रही होगी। आप दोनों घर कब आ रहे है?" परम ने खड़े होते हुए कहा।
''जल्दी ही आएंगे बेटा" सावित्री ने संदेश का डिब्बा उठाकर परम के हाथों में देते हुए कहा ''संदेश तो खाती है ना बहू"।
''हाँ ये तो खाएगी। उसे बहुत पंसद है। एक बार मैंने बनाये तो सारे खुद ही चट कर गयी थी मुझे एक भी नही दिया था।" परम ने संदेश का डिब्बा हाथ में लेकर सावित्री को प्रणाम किया। उसका माथा चूमकर सावित्री ने आर्शिवाद दिया ''खुश रहो।"
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