खुद के ही शोर में तुम इतने बेहरे हो गए,
कि मेरी चीख भी तुम सुन न सके…
मैंने खामोशी में भी तुम्हें पुकारा था,
हर साँस में तुम्हारा ही नाम उतारा था।
मगर तुम्हारी आवाज़ों की भीड़ इतनी भारी थी,
कि मेरी तन्हाई तुम्हें बोझ लगने लगी थी।
मैं टूटी हुई बातों से सच कहती रही,
तुम अपने सच को ही पूरा सच समझते रहे।
मेरी आँखों में जो डर था, जो सवाल था,
वो तुम्हें दिखा नहीं, या दिखना तुम्हें गवारा न था।
तुम्हारे अपने शोर ने तुम्हें इतना दूर कर दिया,
कि पास होकर भी तुमने मुझे अनसुना कर दिया।
और अब जब मैं चुप हूँ, तो सुकून सा लगता है तुम्हें,
क्योंकि अब कोई चीख नहीं है, जो आईना दिखा सके तुम्हें।
खुद के ही शोर में तुम इतने बेहरे हो गए,
कि टूटते हुए दिल की आहट भी तुम सुन न सके…
आर्यमौलिक