मुझे तबीयत का अंदाज़ा था,
इसलिए शायद हर रोज़ हँसता रहा।
दिल में जो तूफ़ान थे,
उन्हें चुपके से सांसों में दबाता रहा।
ज़िंदगी में एक छोटा-सा मलाल रहा,
कि तमाम कोशिशों के बावजूद
कभी भी वो मुक़ाम न मिला।
हर रोज़ कुछ बना, कुछ टूटा,
मगर जो सपना था, वो कभी पूरा न हुआ।
आज जब मौत सामने खड़ी है,
तो मलाल किस बात का करूँ?
जो जीया, जितना भी जीया,
उसे अब गिनने का हिसाब क्या करूँ?