English Quote in Religious by Ex Muslim Suhana

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आतंक का दूसरा नाम “मोहम्मद पैगंबर”

★चैप्टर — 1 — मुहम्मद कौन था?
आइये, मुहम्मद की कहानी सुनाते हैं। उसके जीवन में झांकें। वह कौन था और उसकी सोच क्या थी? इस अध्याय में हम एक ऐसे इंसान के जीवन के विभिन्न पक्षों को संक्षिप्त रूप से देखेंगे, जिसकी करोड़ों की तादाद में दूसरे इंसान इबादत करते हैं। दरअस्ल, इस्लाम और कुछ नहीं, केवल मुहम्मदवाद है। मुसलमान दावा करते हैं कि वे केवल एक अल्लाह की इबादत करते हैं। चूंकि अल्लाह और कुछ नहीं, केवल मुहम्मद के अहंकार से पैदा हुई कल्पना और मुहम्मद का ही प्रतिरूप अदृश्य कृत्रिम हौवा है। इसलिए यह मुहम्मद ही है, जिसकी वे इबादत करते हैं। इस्लाम मुहम्मद की व्यक्ति की पूजा है।

हम मुहम्मद के शब्दों को पढ़ेंगे, जो उसने कुरान में लिखा है और दावा किया है कि ये शब्द अल्लाह के हैं। हम मुहम्मद को उसके साथियों और बीबियों की नजर से देखेंगे। हम यह भी जानेंगे कि कैसे महज एक दशक में मुहम्मद एक परित्यक्त से अरब का वास्तविक शासक बन बैठा। कैसे मुहम्मद ने लोगों को नियंत्रित करने के लिए उनके दिलों में दरार पैदा की और यह भी देखेंगे कि कैसे मुहम्मद ने अपने विचारों से सहमत न होने वाले लोगों के खिलाफ जंग करने के लिए लोगों में विद्रोह की आग लगा दी, कैसे युद्ध छेड़ने के लिए लोगों में नफरत और क्रोध की ज्वाला भड़का दी। हम यह भी देखेंगे कि मुहम्मद ने कैसे विरोधियों को दबाने और उनके मन में भय पैदा करने के लिए घात, बलात्कार, शारीरिक यातना और हत्याओं को अंजाम दिया। हम मुहम्मद द्वारा किए गए नरसंहार और धोखे व चालबाजी की उस रणनीतिक प्रवृत्ति को भी जानेंगे।
आज के मुसलमान आतंकी-समूह मुहम्मद की इसी रणनीति का इस्तेमाल करते हैं। मुहम्मद को समझने के बाद आप जान पाएंगे कि आतंकवादी वही कर रहे हैं, जो उनके रसूल ने किया था।

मुहम्मद का जन्म व बचपन
अरब के मक्का में वर्ष 570 ई. में एक विधवा युवा महिला आमना ने एक पुत्र को जन्म दिया। आमना ने बेटे का नाम मुहम्मद रखा। हालांकि मुहम्मद आमना की इकलौती संतान था, फिर भी उसने पालन-पोषण के लिए मुहम्मद को रेगिस्तान में रहने वाले एक खानाबदोश दंपत्ति को सौंप दिया। उस वक्त मुहम्मद बमुश्किल छह माह का था।

अरब में कभी-कभी अमीर महिलाएं अपने नवजात शिशु की देखभाल के लिए कुछ पैसे पर आया (परिचारिका) रख लेती थीं। इससे उन्हें बच्चे की देखभाल करने से फुर्सत मिल जाती थी और वे फौरन दूसरा गर्भ धारण करने के लिए तैयार हो जाती थीं। अधिक बच्चे समाज में ऊंची हैसियत दिखाते थे पर आमना के साथ ऐसा कुछ नहीं था। आमना विधवा थी। उसे केवल एक ही संतान का लालन-पालन करना था और दूसरे वो अमीर भी नहीं थी। मुहम्मद के पैदा होने के छह माह पहले ही उसके पिता अब्दुल्ला दुनिया से चले गए थे। इसके अलावा नवजात को दूसरे के पास छोड़ने की प्रथा आम भी नहीं थी। मुहम्मद की पहली बीबी खदीजा मक्का की सबसे अमीर महिला थी। खदीजा की पहली दो शादियों से तीन बच्चे थे। मुहम्मद से शादी के बाद उसके छह बच्चे और हुए। खदीजा ने अपने सारे बच्चों को खुद ही पाल-पोसकर बड़ा किया था।

फिर आमना ने अपनी इकलौती संतान को पालने के लिए किसी और को क्यों दे दिया ? मुहम्मद की मां आमना के बारे में बहुत कम जानकारी उपलब्ध है। इसलिए उसको और उसके इस निर्णय को समझ पाना मुश्किल है।

आमना की मनोवैज्ञानिक प्रकृति और मुहम्मद से उसके रिश्ते पर प्रकाश डालने वाली एक रोचक बात यह जरूर है कि उसने मुहम्मद को कभी अपना दूध नहीं पिलाया। जन्म के बाद ही मुहम्मद को देखभाल के लिए उसके चाचा अबू लहब की नौकरानी सुऐबा को दे दिया। अबू लहब वही व्यक्ति हैं जिन्हें मुहम्मद ने उनकी बीबी सहित कुरान के सूरा 111 में लानत भेजी है। यह उल्लेख कहीं नहीं मिलता कि आमना ने खुद बच्चे को क्यों नहीं पाला । हम इस बारे में केवल अनुमान लगा सकते हैं।

क्या वह अवसाद में थी कि इतनी कम उम्र में विधवा हो गई ? या फिर उसे यह लगता था कि यह बच्चा उसकी दूसरी शादी की संभावना में बाधा बनेगा ?

परिवार में किसी की मृत्यु दिमाग में रासायनिक परिवर्तन करती है, जो अवसादग्रस्त बना सकती है। किसी महिला के अवसाद में जाने के अन्य कारण अकेलापन, गर्भ को लेकर चिंता, शादीशुदा जिंदगी में कलह या धनदौलत की समस्या और कम उम्र में मां बनना भी हो सकते हैं। आमना ने हाल ही में अपना पति खोया था। वह बिलकुल अकेली, गरीब और नवयौवना थी। इतना सब जानने के बाद यह अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि आमना उन सारी समस्याओं की जद में थी, जिससे अवसाद उसे आसानी से अपना शिकार बना सके। अवसाद ऐसी मानसिक अवस्था है जो महिला को अपने नवजात शिशु से भी भावनात्मक रूप से दूर कर देती है। महिला यदि गर्भावस्था के दौरान अवसाद में है तो प्रसव के बाद लंबे समय तक अवसाद में जाने की आशंका बनी रहती है और यह गर्भवती महिला के लिए जोखिम भरा हो सकता है। कुछ अनुसंधान बताते हैं कि गर्भवती महिला का अवसाद ग्रस्त होना उसकी कोख में पल रहे बच्चे पर सीधा असर डालता है। इस स्थिति में पैदा होने वाले बच्चे अकसर तुनक मिजाज और लद्दधड़ (आलसी) प्रवृत्ति के हो जाते हैं। ऐसे बच्चे में सीखने की क्षमता भी मंद पड़ जाती है और ये भावनात्मक रूप से निष्क्रिय और हिंसक व्यवहार वाले हो सकते हैं।

मुहम्मद अजनबियों के बीच पला-बढ़ा। जब उसे थोड़ी समझ हुई तो जान सका कि जिसके साथ वह रह रहा था, उस परिवार का नहीं हैं। उसके मन में यह सवाल जरूर कौंधा होगा कि क्यों उसकी अपनी मां उसे अपने पास नहीं रखना चाहती। मुहम्मद साल में दो बार अपनी मां से मिलने भी जाता था।

कई दशकों बाद हलीमा कहती भी थी कि पहले वह मुहम्मद को नहीं लेना चाहती थी, क्योंकि वह एक गरीब विधवा का अनाथ बेटा था और उसके पास कुछ नहीं था। चूंकि उसे किसी अमीर परिवार का बच्चा नहीं मिल सका, इसलिए उसने मजबूरी में मुहम्मद को लिया, क्योंकि उसके परिवार को पैसे की जरूरत थी। हालांकि मुहम्मद की देखभाल के एवज में उसे अधिक कुछ नहीं मिलता था। क्या इससे पता नहीं चलता कि हलीमा मुहम्मद का कितना ध्यान रखती होगी ? उम्र के उस नाजुक रचनात्मक दौर में जब बच्चे का चरित्र गढ़ा जाता है, क्या मुहम्मद को उस परिवार में प्यार मिला ?

हलीमा ने कहा है कि मुहम्मद गुमसुम अकेला रहने वाला बच्चा था। वह अपने विचारों की दुनिया में खोया रहता था। दोस्तों से भी इस तरह चोरी-छिपे बातचीत करता था कि उसे कोई और न देख पाए। क्या यह उस बच्चे की प्रतिक्रिया थी, जो वास्तविक दुनिया में प्यार नहीं पा सका और इसलिए उसने एक ऐसी काल्पनिक दुनिया बसानी शुरू कर दी, जहां उसका खालीपन दूर होता था और प्यार मिलता था ?

मुहम्मद की मानसिक दशा हलीमा के लिए चिंता का सबब बनने लगी। जब वह पांच साल का हुआ तो हलीमा ने उसे आमना को  लौटा दिया। आमना को अभी दूसरा शौहर नहीं मिला था और वह मुहम्मद को वापस नहीं लेना चाहती थी।

हलीमा ने आमना को मुहम्मद के अजीब व्यवहार और कल्पनाओं से वाकिफ कराया, तब वह उसे वापस लेने को तैयार हुई। इब्ने इसहाक ने हलीमा के शब्दों को इस तरह दर्ज किया है: उसके (हलीमा के अपने बेटे ) पिता ने मुझसे कहा, 'मुझे लगता है कि इस बच्चे को दौरा पड़ता है। मामला और बिगड़े, उससे पहले इस बच्चे को उसके घर पहुंचा दो ।'... वह (मुहम्मद की मां) पूछती रही कि हुआ क्या और तब तक चैन नहीं लेने दिया, जब तक मैंने पूरी बात नहीं बता दी। जब उसने कहा कि क्या उसे बच्चे पर शैतान का साया होने का शक है तो मैंने कहा, 'हां'

छोटे बच्चों का बिस्तर पर पड़े रहकर शैतान को देखना या काल्पनिक दोस्तों से बात करना सामान्य बात है। लेकिन मुहम्मद के मामले में यह आपवादिक रूप से चेतावनी भरा था। हलीमा के शौहर ने कहा, 'मुझे लगता है कि इस बच्चे को दौरा पड़ता है। यह जानकारी अहम है। सालों बाद मुहम्मद ने खुद अपने बचपन के अजीबोगरीब अनुभव के बारे में बताते हुए कहा: 'सफेद वस्त्र में दो आदमी आए, और उनके हाथ में सोने का प्याला था, जिसमें बर्फ भरी हुई थी। वे मुझे ले गए और मेरे शरीर को खोल डाला, फिर मेरा कलेजा निकाला और इसे भी खोला, फिर इसमें से काले रंग का थक्का निकाला और दूर फेंक दिया। इसके बाद मेरे दिल को और मेरे पूरे शरीर को उस बर्फ से तब तक साफ करते रहे, जब तक कि वह पूरी तरह पाक नहीं हो गया।'

एक बात तो सौ टका सच है कि मन के विकार हृदय में थक्के के रूप में नहीं दिखते। यह भी सच है कि बच्चे पापमुक्त होते हैं। पाप किसी सर्जरी से खत्म नहीं किया जा सकता है और न ही बर्फ सफाई करने वाला साधन होता है। यह पूरा किस्सा या तो कोरी कल्पना है या मिथ्याभास।

मुहम्मद अब अपनी मां के पास रहने लगा था, लेकिन उसकी किस्मत में यह सुख लंबा नहीं लिखा था। सालभर बाद ही आमना की भी मौत हो गई। मुहम्मद आमना से अधिक बात नहीं करता था। आमना की मौत के 50 साल बाद जब मुहम्मद ने मक्का पर फतह हासिल की तो वो मक्का और मदीना के बीच स्थित अब्वा नामक जगह पर अपनी मां की कब्र पर गया और रोया।

मुहम्मद ने अपने साथियों को बतायाः यह मेरी मां की कब्र है, अल्लाह ने मुझे यहां आने की इजाजत दी है। मैंने उसके लिए दुआ करनी चाही, लेकिन अल्लाह ने मंजूर नहीं किया तो मैंने मां को याद किया और उसकी यादों में डूब गया और रोने लगा।

अल्लाह मुहम्मद को अपनी मां के लिए दुआ मांगने की इजाजत क्यों नहीं देगा? उनकी मां ने ऐसा क्या किया था कि वह माफी बख्शी जाने के काबिल नहीं थी ? फिर तो अल्लाह अन्याय करने वाला है, यह न मानें तो इस बात को हजम कर पाना मुश्किल है। जाहिर है, अल्लाह का इससे कोई लेना-देना नहीं था। मुहम्मद अपनी मां को माफ नहीं कर पाया था और वह भी उनकी मौत के पचास साल बाद भी। शायद मुहम्मद के जहन में उसकी याद एक प्रेमहीन रूखी महिला के रूप में अंकित थी और उसका मन अपनी मां को लेकर क्षुब्ध था। शायद मुहम्मद के दिलोदिमाग पर गहरे जख्म थे, जो कभी नहीं भर सके।

आमना की मौत के बाद मुहम्मद ने दो साल अपने दादा अब्दुल मुत्तलिब के घर बिताए। उसके दादा को इस बात का खयाल था कि उनके पोते ने अभी तक अनाथ जीवन जिया है, तो वे अपने मरे हुए बेटे अब्दुल्ला की इस निशानी के ऊपर प्यार और धन-दौलत लुटाने लगे। इब्ने साद लिखता है कि अब्दुल मुत्तलिब ने इस बच्चे को वह लाड़-प्यार दिया जो उन्होंने कभी अपने बेटों को भी नहीं दिया था। मीर ने मुहम्मद के जीवनवृत्त में लिखा है: 'इस बच्चे को उसके दादा ने बेपनाह दुलार दिया। काबा की छाया में गलीचा बिछाया जाता था और उस पर बैठकर यह वृद्ध मुखिया (मुहम्मद के दादा) सूरज की तपिश से बचने के लिए आराम फरमाता था। इस गलीचे के चारों ओर थोड़ी दूर पर उसके बेटे बैठते थे। छोटा सा मुहम्मद इस मुखिया के पास भागकर आता था और गलीचे पर बैठ जाता था। मुखिया के बेटे मुहम्मद को हटाने की कोशिश करते तो अब्दुल मुत्तलिब उन्हें रोक देता और कहता: 'मेरे बच्चे को अकेला छोड़ दो।' फिर वह मुहम्मद की पीठ सहलाता और उनकी बालसुलभ क्रीड़ाएं देखकर आनंदित होता। मुहम्मद अभी भी बराका नाम की आया की देखरेख में रहता था पर वह उसके पास से भागने लगता और अपने दादा के कक्ष में घुस जाता, यहां तक कि जब वे अकेले होते या सो रहे होते तब भी।'

मुहम्मद अक्सर अपने दादा अब्दुल मुत्तलिब के उस लाड़-प्यार को याद करता था। बाद में उसने कल्पना का तड़का लगाते हुए कहा कि दादा उसके बारे में कहा करते थे, “उसे अकेला छोड़ दो, वह बड़ा किस्मत वाला है। एक साम्राज्य का मालिक होगा।” वे बराका से कहते, “ध्यान रखना, कहीं यह बच्चा यहूदियों या ईसाइयों के हाथों न पड़ जाए, क्योंकि वे लोग इसे ढूंढ रहे हैं और पाते ही इसे नुकसान पहुंचाएंगे।”

हालांकि किसी को मुहम्मद के दादा की ये बातें याद नहीं थी और मुहम्मद का कोई चाचा सिवाय हमजा के, उसके दावों को स्वीकार करने को तैयार नहीं हुआ। हमजा मुहम्मद का हमउम्र था। अब्बास जरूर मुहम्मद के गिरोह में शामिल हो गया था, पर तब जबकि उसके सितारे बुलंद हो चुके थे और वह हमला करने के लिए घेरा डालकर मक्का के द्वार पर बैठा था।

पर मुहम्मद पर बदकिस्मती अभी खत्म नहीं हुई थी। यहां रहते अभी दो साल भी नहीं बीते थे कि 82 वर्ष की अवस्था में मुहम्मद के दादा की भी मौत हो गई। मुहम्मद अपने चाचा अबू तालिब के संरक्षण में आ गया। दादा का दुनिया से चले जाना इस अनाथ बच्चे को बहुत खला। जब दादा का जनाजा हजून के कब्रिस्तान ले जाया जा रहा था तो मुहम्मद बहुत रोया था; और उसे दादा की याद सालों तक सताती रही। चाचा अबू तालिब ने शिद्दत से अपनी जिम्मेदारी निभाई। मीर लिखता है: अबू तालिब ने मुहम्मद को उसी तरह लाड़ प्यार दिया, जैसे उनके पिता देते थे। वे इस बच्चे को बिस्तर पर ले जाकर सुलाते थे, उसे साथ बिठाकर खाना खिलाते थे। उसे बाहर घुमाने ले जाते थे। तालिब का यह सिलसिला तब तक जारी रहा, जब तक मुहम्मद बचपन की दुश्वारियों से बाहर नहीं आ गया। इब्ने-साद वाक़दी के हवाले से लिखते हैं: हालांकि अबू तालिब बहुत अमीर नहीं थे, फिर भी उन्होंने मुहम्मद को अपने बच्चों से अधिक लाड़-प्यार दिया।

बचपन में इस तरह के भावनात्मक झंझावातों को झेलने के कारण मुहम्मद को अकेले पड़ने से डर लगने लगा था। यह बात उस घटना से स्पष्ट होती है, जो तब हुई जब मुहम्मद 12 साल का था। एक दिन अबू तालिब व्यापार के सिलसिले में सीरिया जाने को तैयार हुए। लेकिन जब कारवां सफर के लिए तैयार हुआ और अबू तालिब ऊंट पर सवार होने लगे तो मुहम्मद को लगा कि वह बहुत दिनो के लिए उनसे दूर जा रहे हैं। यही सोचकर मुहम्मद उनसे बहुत देर तक लिपट कर रोता रहा। अबू तालिब से भतीजे के आंसू नहीं देखे गए और वे उसे अपने साथ ले गए।

मुहम्मद का अपने चाचा के प्रति इस हद तक मोह यह सुराग देता है कि उसके मन में हमेशा अपने प्यार करने वालों को खोने का डर बना रहा। पर आखिर में मुहम्मद ने अपने उस चाचा के प्रति अहसानफरामोशी दिखाई, जो उससे इतना स्नेह रखते थे और यहां तक कि जीवन भर अपने बच्चों से अधिक उसका पक्ष लेते रहे। अबू तालिब की मौत नजदीक आ गई तो मुहम्मद उन्हें देखने गया। अबू तालिब के सभी भाई वहां मौजूद थे। हमेशा मुहम्मद की भलाई सोचने वाले अबू तालिब ने मरते वक्त भी अपने भाइयों से गुजारिश की कि वे मुहम्मद का ध्यान रखें। हालांकि इस समय मुहम्मद की उम्र 53 बरस थी। सभी भाइयों ने अबू तालिब से वादा किया कि वे हमेशा मुहम्मद की रक्षा करेंगे। वचन देने वालों में अबू लहब भी शामिल थे, जिन्हें मुहम्मद ने लानत भेजी थी। इसके बाद मुहम्मद ने मृत्युशैया पर पड़े अपने चाचा अबू तालिब को इस्लाम कबूल करने को कहा।

मुहम्मद को हमेशा यह बात परेशान करती थी कि उसके अनुयायी कमजोर और निचले तबके के हैं। अपना कद और प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए मुहम्मद को किसी जहीन व प्रतिष्ठित व्यक्ति को अपनी जमात में शामिल करने की जरूरत थी। इब्ने इसहाक बताता है: जब भी मेलों में भीड़ आती, या मक्का में किसी महत्वपूर्ण या दिव्य पुरुष के आने की आहट होती तो मुहम्मद उनके पास अपने पैगाम लेकर जाता।

इतिहास लेखक बताते हैं कि जब अबू बक्र और उसके बाद उमर मुहम्मद उसके साथ आ गए तो उसने खूब जश्न मनाया। अबू तालिब ने यदि धर्म परिवर्तन कर लिया होता तो चाचाओं और उसकी कुरैश जनजाति में मुहम्मद की प्रतिष्ठा बढ़ जाती। कुरैश जनजाति मक्का के चारों ओर रहती थी और काबा की संरक्षक थी। इसलिए अबू तालिब का धर्मांतरण होते ही मुहम्मद को वह साख व सम्मान चुटकी में मिल जाता, जिसका वह भूखा था। लेकिन मृत्युशैया पर पड़े अबू तालिब मुस्कुराए और बोले कि वे अपने पूर्वजों के धर्म में अटल विश्वास रखते हुए मरना अधिक पसंद करेंगे। यह जवाब सुनकर मुहम्मद की उम्मीदों पर पानी फिर गया और वह बड़बड़ाते हुए कमरे से निकल गया: 'मैं उनके लिए माफी की दुआ करना चाहता था, लेकिन अल्लाह ने मुझे ऐसा करने से रोक दिया'

यह मानना कठिन है कि जिसने उसे पाल-पोसकर बड़ा किया, पूरी जिंदगी जिसका संरक्षण किया और जिसने इतना त्याग किया, अल्लाह ने अपने रसूल को उस इंसान के लिए दुआ करने से रोक दिया होगा। इससे तो अल्लाह का स्तर इतना नीचे गिर जाएगा कि वह इबादत के लायक ही नहीं रहेगा। अबू तालिब और उनके परिवार ने मुहम्मद के लिए बहुत त्याग किए थे। यह इंसान अबू तालिब अपने भतीजे मुहम्मद के दावे पर भले ही रत्ती भर भरोसा नहीं करता था, पर मुहम्मद के विरोधियों के सामने वह हमेशा चट्टान बनकर खड़ा रहा और 38 सालों तक उसका कद्दावर समर्थक रहा। लेकिन तालिब ने इस्लाम कबूलने से इंकार कर दिया तो मुहम्मद को इतना बुरा लगा कि वह उसकी मौत पर प्रार्थना करने तक नहीं गया।

बुखारी लिखता है: जैसा कि अबू-साद अल खुद्री ने बयान किया है, कि किसी ने उसके चाचा (अबू तालिब) का जिक्र किया तो पैगम्बर को कहते सुना गया, 'शायद कयामत के दिन मेरी दखलंदाजी से उनकी मदद हो। जब उनको आग के दरिया में घुटनों तक झोंका जाएगा और उनका दिमाग उबलेगा।'

युवावस्था में मुहम्मद का जीवन अपेक्षाकृत घटनाविहीन सा रहा, और ऐसी कोई विचारणीय बात नहीं हुई, जिसका जिक्र वो या उसका जीवनवृत्त लिखने वाले कर सकें। वह शर्मीला, गुमसुम रहने वाला और दीन-दुनिया से बेखबर रहने वाला इंसान था। भले ही उसके चाचा ने लाड़-प्यार में कमी नहीं रहने दी और यहां तक कि अत्यधिक छूट देकर उसे बिगाड़ भी दिया, पर मुहम्मद हमेशा अपने अनाथ वाली स्थिति के प्रति अधिक संवेदनशील रहा। अकेलेपन और प्यार-दुलार से वंचित जीवन की यादें जीवनभर उसका पीछा करती रहीं। साल बीतते गए। मुहम्मद अकेला अपनी ही दुनिया में पड़ा रहा, अपने हमउम्रों से बिलकुल दूर और अलग-थलग।

बुखारी में बताया गया है कि 'मुहम्मद एक शर्मीली, ढंकी-छिपी कुंवारी लड़की से भी अधिक शर्मीला था।'  वह जीवन भर ऐसा ही रहा, असुरक्षित और डरपोक। इस कमजोरी को छिपाने के लिए उसने अपने चारों ओर तड़क-भड़क वाला एक कृत्रिम आभामंडल तैयार किया। किसी काम में उसका मन नहीं लगता था। कभी-कभी वो भेड़ चराने जरूर जाता था, जो अधिकतर लड़कियां करती थीं और अरबी इसे मर्दों वाला काम नहीं मानते थे। उसकी अपनी कोई खास कमाई नहीं थी। आजीविका के लिए वह अपने चाचा अबू तालिब पर निर्भर था।

खदीजा से शादी
अबू तालिब ने 25 बरस की उम्र में मुहम्मद को एक नौकरी दिलवा दी। उसे अपनी एक रिश्तेदार और अमीर व्यापारी खदीजा के यहां साज-संभाल के काम पर रखवा दिया। खदीजा करीब 40 साल की सफल व्यापारी और विधवा थी। खदीजा के हुक्म पर एक बार मुहम्मद खदीजा का सामान बेचने और कुछ सामान खरीदने के लिए सीरिया गया। मुहम्मद जब लौट के आया तो खदीजा उसके प्यार में गिरफ्तार हो चुकी थी। खदीजा ने अपनी एक नौकरानी के माध्यम से मुहम्मद के पास शादी का प्रस्ताव भेजा।

मुहम्मद को धन की भी जरूरत थी और एक ऐसे साथी की भी, जिसके साथ वो अपना सुख-दुख साझा कर सके। खदीजा के साथ विवाह करना मुहम्मद के लिए खजाना पाने जैसा था। मुहम्मद खदीजा में अपनी उस मां का अक्स और प्यार देख रहा था, जिसके लिए वह बचपन से तरसा था। दूसरे इस शादी से उसे आर्थिक सुरक्षा भी मिल जाती और उसे फिर कोई कामधाम करने की जरूरत नहीं पड़ती।

खदीजा अपने युवा पति की जरूरतों का कुछ अधिक ही ध्यान रखने लगी। वह मुहम्मद की देखभाल करने, उसके लिए अपना सबकुछ लुटाने और आत्मबलिदान में खुशी हासिल करने लगी।

मुहम्मद न तो सामाजिक था और न ही उसे कोई काम करना अच्छा लगता था। वह दुनिया से अलग-थलग रहकर अपने विचारों में खोया रहने वाला इंसान था। जब वह बच्चा था, तो उस समय भी अपने हमउम्रों से बचता फिरता था और उनके साथ नहीं खेलता था। वह अक्सर अकेला और विषादग्रस्त दिखता था। वह शायद ही कभी हँसता था, और यदि कभी हँसा भी तो लड़कियों की तरह मुंह छिपा लेता था। तब से अपने रसूल की रिवायत का पालन करते हुए मुसलमान हँसी-ठहाके को अच्छा नहीं मानते हैं।

अपने एकाकी काल्पनिक संसार में मुहम्मद अब निठल्ला व अवांछित बच्चा नहीं था, जैसा कि जीवन के प्रारंभिक वर्षों में उसने स्वयं को पाया था। बल्कि उसे इस संसार में प्यार, सम्मान, प्रशंसा मिलती थी, और उसका भयमिश्रित प्रभाव भी था। जब उसे जीवन भारी लगने लगता और अकेलापन हावी हो जाता तो वह फंतासी में चला जाता था, जहां वह खुद को किसी भी भूमिका में आ सकता था या अपना पसंदीदा कुछ भी कर सकता था।

उसने बहुत कम उम्र में उसी समय यह सहारा ढूंढ लिया होगा, जब वो अपने लालन-पालन करने वाले परिवार (फोस्टर फैमिली) के साथ रहता था और रेगिस्तान में अपने अकेलेपन के साथ दिन बिताता था। कल्पनाओं की यह रमणीय और आरामदायक दुनिया जीवन भर उसका सहारा बनी रही। यह उसे उतना ही वास्तविक लगने लगा, जितना कि वास्तविक दुनिया सुखद हो सकती थी। बीबी और 9 बच्चों को घर पर छोड़ कर मुहम्मद मक्का के पास स्थित खोह में चला जाता था और दीन-दुनिया से विरत अपने विचारों व दिवास्वप्न में समय काटता था।

रहस्यमयी अनुभव
40 साल की आयु में एक दिन मुहम्मद को खोह में कई दिन बिताने के बाद अजीब अहसास हुआ। उसकी मांसपेशियों में जबरदस्त खिंचाव होने लगा, पेडू में असहनीय दर्द होने लगा और उसे ऐसा लगा कि कोई उसके शरीर को जोर से निचोड़ रहा है। उसकी मांसपेशियां अकड़ने लगीं और सिर व होंठ असामान्य तरीके से हिलने लगे, वह पसीने से लथपथ था और हृदय की धड़कन तेज हो गई थी। इस अवस्था में उसने अदृश्य आवाजें सुनीं और भूत जैसी आकृति देखी।

डर से कांपते हुए और पसीने से लथपथ वह घर की ओर भागा और बीबी खदीजा के सामने गिड़गिड़ाने लगा, “मुझे छिपाओ, मुझे छिपाओ। अरे ओ खदीजा, देखो मुझे क्या हो रहा है ?” मुहम्मद ने खदीजा को बताया कि उसके साथ क्या हुआ और बोला, “मुझे डर लग रहा है, मुझे कुछ हो जाएगा।” उसे लगा कि उसे फिर से शैतान ने जकड़ लिया है। खदीजा ने मुहम्मद को हिम्मत दी और बोली, 'डरो मत। कुछ नहीं होगा।' खदीजा ने मुहम्मद को समझाया कि उसके पास फरिश्ता आया था और उसे पैगम्बर बनाने के लिए चुना गया है।

उस आकृति से सामना होने के बाद, जिसे खदीजा ने जिब्राईल कहा था, मुहम्मद यकीन करने लगा कि उसका दर्जा अब पैगम्बर का हो गया है। यह काल्पनिक संसार मुहम्मद को उपयुक्त भी लगा, क्योंकि आडम्बरपूर्ण व भव्य जीवन जीने की उसकी इच्छा इसके माध्यम से पूरी हो सकती थी। मुहम्मद ने अल्लाह के पैगाम पर उपदेश देना शुरू किया। पर उसका पैगाम क्या था ? पैगाम यह था कि वह अब अल्लाह का पैगम्बर हो गया है और लोगों को उस पर विश्वास करना पड़ेगा। इसका अर्थ यह था कि अब लोगों को उससे मुहब्बत करनी होगी, उसका सम्मान करना होगा, उसके हुक्म का पालन करना होगा, उसके बताए मार्ग पर चलना होगा और उससे डरना भी होगा। इसके बाद 23 साल तक वह लगभग यही पैगाम लोगों को सुनाता रहा। इस्लाम का मुख्य पैगाम यही है कि मुहम्मद पैगम्बर है और सबको उनकी आज्ञा का पालन करना होगा। इसके अलावा इस्लाम में कोई संदेश नहीं है। मुहम्मद को पैगम्बर स्वीकार नहीं करने वाले के लिए इस लोक में भी और मरने के बाद परलोक में भी सजा मिलेगी। अद्वैतवाद, जो अब इस्लाम का मुख्य तर्क है, मुहम्मद के मूल पैगाम का हिस्सा नहीं है।

मुहम्मद सालों तक मक्का निवासियों के मूल धर्म व देवताओं का उपहास उड़ाता रहा और अपमान करता रहा। मक्का के लोगों ने मुहम्मद और उनके अनुयायियों से सारे संबंध खत्म कर लिए। इसके बाद मुहम्मद के हुक्म पर उसके अनुयायी अबीसीनिया चले गए। बाद में मक्का वालों को संतुष्ट करने के लिए मुहम्मद उनसे समझौता करने को मजबूर हो गया।

इब्ने साद लिखता है: एक दिन रसूल काबा के पास लोगों के बीच सूरा अल-नज्म (सूरा-53) पढ़कर सुना रहे थे। जब वे आयत 19-20 पर पहुंचे और कहा, 'तो भला तुम लोगों ने लात व उज्ज़ा और तीसरे पिछले मनात को देखा।' तो शैतान ने रसूल के मुंह में डालकर नीचे की दो आयतें कहलवाई : 'ये तीनों देवियां सुखदायी हैं और इनकी मध्यता से बख्शिश की उम्मीद है।'

इन शब्दों से मक्का की प्रभावशाली कुरैश बहुत खुश हुए। इन्होंने मुहम्मद का बहिष्कार और उससे दुश्मनी खत्म कर दी। यह खबर अबीसीनिया में रह रहे मुसलमानों तक पहुंची तो वे प्रसन्नतापूर्वक मक्का लौट आए।

कुछ समय बाद मुहम्मद को अहसास हुआ कि अल्लाह की तीन बेटियों को देवी की मान्यता देकर वो खुद का नुकसान कर रहा है। क्योंकि इससे अल्लाह और इंसान के बीच एकमात्र संदेशवाहक होने का उसका दावा कमजोर होता था। उसके नए मजहब को प्रचलित मूर्तिपूजकों के धर्म से अलग व श्रेष्ठ दिखाने की मेहनत पर पानी फिर रहा है तो मुहम्मद फिर से पलट गया। फिर उसने कहा कि अल्लाह की बेटियों को मान्यता देने वाली आयतें शैतानी हैं। मुहम्मद ने इन दोनों आयतों की जगह दूसरी आयत में कहा, 'क्या ! तुम्हारे लिए बेटे और उसके लिए बेटियां! यह तो नाइंसाफी का बंटवारा है।'  मतलब यह था कि तुमने अल्लाह के मत्थे बेटियां मढ़ने की हिमाकत कैसे की, जबकि तुम खुद बेटे पैदा करने में गर्व महसूस करते हो ? औरतों की बुद्धि कम होती है और अल्लाह के पास बेटियां होंगी, यह कहना सरासर अनुचित है। यह बंटवारा बिलकुल अन्यायपूर्ण है।

यह सुनकर मुहम्मद के कुछ अनुयायियों ने उसका साथ छोड़ दिया। अपने इस यू-टर्न को सही साबित करने और उनका विश्वास दोबारा हासिल करने के लिए मुहम्मद ने दावा किया कि शैतान ने पहले के पैगम्बरों को भी बेवकूफ बनाया था। शैतान ने उन पैगम्बरों के मुँह से ऐसी राक्षसी आयतें कहलवाई थीं, जो अल्लाह के पैगाम होने का भ्रम पैदा करती थीं।

और (ऐ रसूल) हमने तुमसे पहले जब कभी कोई रसूल और नबी नहीं भेजा। पर ये ज़रूर हुआ कि जिस वक्त उसने धर्मप्रचार के हुक्म की आरजू की तो शैतान ने उसकी आरजू में लोगों को बहका कर खलल डाल दिया। फिर जो आशंका शैतान डालता है अल्लाह उसे रद्द कर देता है फिर अपने हुक्म को मज़बूत करता है। अल्लाह तो सब जानता है। और शैतान जो आशंका डालता भी है तो इसलिए ताकि अल्लाह उन लोगों की आजमाइश का जरिया करार दे, जिनके दिलों में कुफ्र का मरज़ है। (कुरान22:52-53)

मुहम्मद ने ये आयतें इसलिए लिखीं क्योंकि उसके बहुत से अनुयायी यह जानकर उसे छोड़ गए थे कि वह कुरान किसी अल्लाह का पैगाम नहीं है, बल्कि ये मुहम्मद की परिस्थितियां थोपने वाले (सिचुएशन डिक्टेटेड) हैं। इन आयतों के वास्तविक तत्व क्या हैं? साफगोई से कहें तो ये कहती हैं कि 'यदि तुम अहमक (मूर्ख) मुझको (मुहम्मद) गंदी हालत में भी पकड़ लेते हो तो यह भी तुम्हारा ही दोष है, क्योंकि तुम्हारा मन व्याधिग्रस्त है।'

30 साल बीत चुके थे, लेकिन वह 70-80 लोग ही ऐसे जुटा सका, जो उसके मजहब पर विश्वास करते थे। उसकी बीबी खदीजा उसकी पहली अनुयायी थी, जो न केवल उसकी जरूरतें पूरी करती थी, बल्कि उसकी खुशामद भी करती थी और उसकी दासी बनकर हर तरीके से उसे देवता बनाने की कोशिश भी करती थी।

उसकी बीबी खदीजा की सामाजिक प्रतिष्ठा ने अबू बक्र, उस्मान व उमर जैसे औसत लोगों को मुहम्मद के साथ जुड़ने में अहम भूमिका निभाई। इनके अलावा मुहम्मद के अनुयायियों में बाकी गुलाम थे और थोड़े से असंतुष्ट युवा थे।

जुल्म-ओ-सितम का मिथक
मक्का में मुहम्मद के आह्वान पर लोगों ने ध्यान नहीं दिया। आज के गैर-मुस्लिमों की तरह ही उस वक्त के मक्का के निवासी सभी धर्मों के प्रति सहिष्णु होते थे। उस धरती पर किसी का धार्मिक आधार पर उत्पीड़न सुना नहीं गया था। बहुदेववादी समाज सामान्यतः सहिष्णु प्रकृति का होता है।

जब मुहम्मद ने मूर्तिपूजकों के देवी-देवताओं का अपमान किया तो यह मक्का के लोगों के लिए बर्दाश्त से बाहर था, इसलिए इन लोगों ने मुहम्मद व उसके अनुयायियों का बहिष्कार कर दिया। इन्होंने निर्णय लिया कि मुहम्मद व उसके अनुयायियों को न तो कोई वस्तु बेचेंगे और न इनसे कुछ खरीदेंगे। यह बहिष्कार करीब दो साल तक चला। इससे मुसलमानों के सामने बड़ी कठिनाई आई, पर बहिष्कार हत्याओं जैसा नहीं होता है। इसलिए हम बहिष्कार को जुल्मो-सितम नहीं कह सकते हैं। जुल्मो-सितम तो वह था जो मुसलमानों ने बहाई धर्म के मानने वालों के साथ किया। ईरान में पिछले दो दशकों में हजारों की संख्या में बहाई लोगों पर अत्याचार किया गया, उन्हें निर्ममता से काट डाला गया, जबकि इन बहाइयों ने न तो कभी इस्लाम का अनादर किया था और न ही किसी इस्लामी लेखक या इस्लामी किताब का अपमान किया था।

मुहम्मद ने अपने अनुयायियों से मक्का छोड़ने को कहा। इससे वे लोग, जिनके बच्चों या गुलामों ने इस्लाम कबूल कर लिया था, परेशान हो गए, घबरा गए। कुछ गुलाम बचकर भागते हुए पकड़ लिए गए और उनकी पिटाई की गई। यह निश्चित रूप से धार्मिक सितम नहीं कहा जा सकता। मक्का के लोग बस उन चीजों को बचाने की कोशिश कर रहे थे, जिसे वह अपनी संपत्ति मानते थे। उदाहरण के लिए, जब बिलाल पकड़ा गया तो उसके मालिक उमय्या ने उसको पीटा और जंजीरों से बांध दिया। अबू बक्र ने दाम दिया तो वह मुक्त कर दिया गया। बिलाल को धर्म बदलने के लिए सजा नहीं दी जा रही थी, बल्कि इसलिए दी जा रही थी, क्योंकि वह भाग रहा था और इससे उसके मालिक को आर्थिक नुकसान हो रहा था और भी किस्से सुनाए जाते हैं कि मुसलमानों को उनके परिवार ने पीटा, क्योंकि उन्होंने इस्लाम स्वीकार कर लिया था। एक हदीस कहती है कि तब उमर मुसलमान नहीं बना था। एक दिन उसने अपनी बहन को बांध दिया और दबाव डालने लगा कि वह इस्लाम छोड़ दे। हालांकि बाद में उमर भी मुसलमान बन गया था। उमर मुसलमान बनने से पहले भी सख्त और हिंसक इंसान था और मुसलमान बनने के बाद भी वह ऐसा ही रहा। इन किस्सों को धार्मिक जुल्म की श्रेणी में रखा जाना मुश्किल है। मध्यपूर्व में व्यक्तिगत स्वतंत्रता अपरिचित और अजनबी विचार है। आपकी आस्था क्या है और आप क्या करते हैं, इस पर सबकी नजर होती है। खासकर महिलाएं अपने निर्णय बिलकुल नहीं ले सकतीं। आज भी परिवार के सम्मान के नाम पर उस औरत की हत्या की जा सकती है, जो अपनी पसंद से और परिवार की इच्छा के विपरीत शादी करना चाहती है।

सुमय्या नाम की महिला को लेकर मुसलमानों पर जुल्म का एक और किस्सा सुनाया जाता है। इब्ने-साद एकमात्र इतिहासकार है, जिसने कहा कि अबू जाल के हाथों सुमैय्या की शहादत हुई। साद का हवाला देते हुए अल-बयहाकी लिखता है: 'अबू जहल ने सुबैय्या की योनि को चाकुओं से गोद डाला था।' यदि शहादत की यह घटना वाकई हुई होती तो मुहम्मद की बड़ाई लिखने वाला हर जीवनी लेखक इसका ढिंढोरा पीटता और मुस्लिम लोक परंपराओं में भी इस शहादत का महिमामंडन किया गया होता। यह एक तरह का उदाहरण है कि शुरुआत से ही मुसलमान कैसी-कैसी अतिरंजनाएं पेश करते रहे हैं।

दरअसल, इसी लेखक ने यह भी दावा किया है कि इस्लाम की राह में शहीद होने वाला पहला शख्स बिलाल था। जबकि बिलाल उस कथित धार्मिक जुल्म के बाद भी लंबे समय तक जिंदा रहा और जब मुहम्मद ने मक्का पर अधिकार कर लिया तो वह वहां आया और काबा की मीनार से अजान भी देता था। बिलाल की प्राकृतिक मौत हुई थी।

कुछ इस्लामी स्रोत दावा करते हैं कि सुमय्या, उसका पति यासिर और बेटा अम्मार मक्का में मारा गया। हालांकि मुईर ने बताया है कि यासिर बीमारी के कारण मर गया तो सुमय्या ने एक यूनानी गुलाम अज़रक़ से शादी कर ली और उसस

English Religious by Ex Muslim Suhana : 111986327
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