मैं भी टूटता हूँ,
बस शोर नहीं करता।
हर दर्द हँसी में छुपा लेता हूँ,
कभी दूसरों की हँसी के लिए,
तो कभी अपनों की खुशी के लिए।
हर दिन बस थोड़ा और बिखर जाता हूँ,
संभलना आता ही नहीं,
इसलिए खुद से ही
झूठी हँसी हँसता हूँ।
क्या करूँ?
आदत ही कमबख्त ऐसी है,
कि आँखों में अश्क होते हैं,
फिर भी लबों पर हँसी ही आती है।