_दरवाज़े प्रैक्टिकल होतें हैं_
_और खिड़कियाँ भावुक,_
_दरवाज़े सिर्फ समझते हैं_
_सांकल की बोली_
_पैरों की आहटें,_
_खिड़कियां पहचानती हैं_
_दबे पाँव पुरवाई का_
_चुपके से अंदर आ जाना,_
_सवेरे की किरणों का_
_भीतर तक उतर जाना,_
_परिंदों का राग,_
_मौसमों का वैराग,_
_बादल की आवारगी,_
_बूंदो की सिसकियाँ,_
_घटते बढ़ते चाँद की_
_ लम्बी-छोटी रातें,_
_चांदनी के सज़दे,_
_और टूट जाना किसी तारे का,_
_खिड़कियाँ सब जान जाती हैं;_
_दरवाज़े होते हैं सख्त,_
_मजबूत_
_नींबू-मिर्ची से सजे धजे_
_अक्खड़ किसी दरबान से,_
_खिड़कियाँ होती है_
_अल्हड़,_
_नादान और सहज;_
_उनपर नही लिखना पड़ता,_
_"स्वागतम्"!