शब्द : *सुंदर*
शीर्षक : *तुम्हारी सुंदरता*
एक बार फिर भोर हो चुकी और इस मन ने तुम्हे याद करना आरंभ कर दिया।
तुम्हारी सुंदरता पे मोहित मैं किसी मृगतृष्णा में फँसता ही जा रहा हूँ।
तुम्हारे उस जग मोहिनी जैसे रूप का वर्णन तो बहुत से व्यक्ति करते होगें, किंतु मेने तुम्हारी उस सुंदरता को परख लिया है, जिससे तुम स्वयं अनभिज्ञ हो।
मुझमें वो शारीरिक सौंदर्य नहीं, जो तुम्हारे निकट एक क्षण भी आ सकूँ। भय है तो बस इस बात का कि पता नहीं तुम्हारी प्रतिक्रिया क्या होगी? क्या तुम मुझसे वार्तालाप करोगी भी?
इसी दुविधा में ये मस्तिष्क तुम्हें विस्मृत करने को तत्पर है।
पर प्रिये, इस चंचल मन का क्या ही किया जाये? ये तो बस उस सुंदरता को जानता है, जो तुममे इसने देखी है।
हर प्रातः, हर निशा - बस तुम्हारी ही सुंदरता के महासागर में पलायन करने को आतुर रहता है।
वो तुम्हारी वाणी, निडरता, और तुम्हारा हास्य; जिसने तुम्हारी सुंदरता को बनाये रखा है - बस वही आकर्षित होना जानता है।
अब इसे तो ये भी नही पता कि मेरी और तुम्हारी सुंदरता में कोई मेल है ही नहीं।
ये श्याम वर्ण कृष्ण तो बस तुम्हारे ही नयनों की सुंदरता के पीछे भागता रहता है।
कहाँ तुम्हारा वो अनुपम अतुलनीय सौंदर्य, और कहाँ मैं?
बस यही विचार है मन में, क्या मेरा श्याम सौंदर्य तुमने भी कभी निहारा है?
- प्रथम शाह