सहारों का आदित्य उदित हुआ,
खुशियों के दिन तक रहा उजाला।
ज्यों-ज्यों खुशियों के दिन बीते,
भड़क उठी सबकी अंतर्ज्वाला।
मजबूरी की रात अंधेरी जब आयी,
हर ओर था फैला उलझन का जाला।
अपने बल पर चराग जलाया जब मैंने,
तो देखा सबने पी थी स्वार्थ भरी हाला।
जो खुद को अपना-अपना कहता था,
वो दिन के भेष में अंधकार था काला।
-Archit Pathak