विधुर पुरुष 2
अक्सर विधुर पुरुष
बहुत ही झुंझलाता है
माँ का प्यार बच्चों पर
जब नहीं लुटा पाता है
माँ सा आंचल देना चाहता
मगर नहीं दे पाता है
फटेहाल ठिठुरती रातों में
माँ नहीं बन पाता है
अक्सर विधुर पुरुष
बहुत ही झुंझलाता है
बच्चों को बाहों में लेता
धूप ताप से बचाता है
माँ पिता दोनों बनकर
दोहरी भूमिका निभाता है
अपने कुर्ते का आंचल बना
खुद सर्दी सह जाता है
अक्सर विधुर पुरुष
बहुत ही झुंझलाता है
बाहर मजदूरी करता
घर में खाना ना पकता है
खुद के आंसू रोक कर
बच्चों को हंसना सिखाता है
खुद बारिश को सहनकर
बच्चों का छाता बन जाता है
अक्सर विधुर पुरुष
बहुत ही झुंझलाता है
एमके कागदाना
फतेहाबाद हरियाणा
मौलिक रचना