"वो गुजरी थी....!"
(प्रेम कविता)
वो गुजरी थी, हां गुजरी थी ना मेरे कनखियों के किनारे से।
उसकी चाल लगी जैसे "अंगारे" से।
मैने पीछे मुड़कर देखा, हां देखा ना पर वो चली गई थी किसी समय के "सुरंग" में!
पहली बार ऐसा महसूस हुआ जैसे कठोर से दिल का जलती हुई मोम की तरह पिघल जाना।
पहली बार ऐसा प्रतीत हुआ मानो आग का पानी से मिलन होना!
वो फिर दिखी? हां दिखी ना मेरे गहरे से समन्दर वाले ख्यालों में "जलपरी" की तरह।
मैने उससे अपनी इच्छाएं मांगी, मांगी ना पर वो चली गई मेरे सुंदर से ख्यालों के कांच की तरह टूटने से!
वो फिर दिखी, हां दिखी ना, जैसे ईद में चांद का दिखना।
बिन बारिश में भी मिट्टी की खुशबूओं का फैलना!
उसने मुझसे आंखे मिलाई, हां मिलाई ना जैसे तपते हुए सूरज को आंखे मूंद कर देखना।
ऐसा लगा मानो, उड़ते हुए पतंगों का हवाओं से मिलना!
ऐसा प्रतीत हुआ जैसे किसी की याद में हिचकियां होना।
हम दोनों हंसे, हां हंसे ना, मानो किसी नई प्रेम कहानी की शुरूआत होना!
(प्रेम कविता)
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