काव्योत्सव 2.0 प्रतियोगिता में अपनी सहभागिता दर्ज कराते हुए आज ये दो ग़ज़लें प्रस्तुत कर रहा हूँ |
???ग़ज़ल ???
दिखा सपने सुहाने बाग को बहला रहे हैं वो |
सिवा अपने न कोई बागबाँ बतला रहे हैं वो |
किताबे-बदख़ुलूसी के छिपा कर स्याह पन्नों को,
ज़माने को गुलाबी आवरण दिखला रहे हैं वो |
यहाँ भरपेट पानी भी मयस्सर हो नहीं पाता,
वहाँ कुत्तों को देखो दूध से नहला रहे हैं वो |
गुलों को लूट के जंगल बना डाला गुलिस्ताँ को,
मगर अब साहिबे-फ़न बागबाँ कहला रहे हैं वो |
हमारी साफगोई दोस्तो उनको न रास आई ,
खरी कह दी भरी महफ़िल में तो झुँझला रहे हैं वो |
जो कहते थे यहाँ हम दूध की नदियाँ बहाएँगे,
ज़मीं को बेख़ता के खून से नहला रहे हैं वो |
धरम के नाम पर अब सिर्फ पत्थर की ही मूरत को,
सजा के थाल छप्पन भोग के दिखला रहे हैं वो |
ज़माने की नज़र में तो मेरे ग़मख़्वार हैं लेकिन,
रहे ताजा मेरा हर ज़ख़्म यूँ सहला रहे हैं वो |
विजय तिवारी, अहमदाबाद
मोबाइल - 9427622862