आज वो फिर अकेला बड़बड़ाता हुआ उसी गरम रास्ते पर चला जा रहा था।
कभी ऊपर देख कर कुछ कह रहा था। कभी मन ही मन गुस्से में ऊपर वाले के सम्मान में
चंद शब्द गढ़े जा रहा था। वो खाली पड़ा रास्ता उसे बिना देखे चले जाने में मदद कर रहा था।
खुले आसमान से धूप उसकी त्वचा परख रही थी। सूरज सर पर था और वो मन ही मन कुछ बोलता
अपने घर की ओर चल रहा था। दरअसल वो अपने घर नहीं किसी और के घर रहता था।
वो अपने खर्च के आये पैसों में से कुछ, उस कमरे के किराए के लिए देता था जहाँ वो 3 महीने से रह रहा था।
वहाँ उस शहर में वो पढ़ने आया था। अपने सपने साकार करने की होड़ में वो भी अपने हाथ पांव
चलाने आया था। पर शायद वो भी अब उस शहर की उन्ही आदतों से बंधने लगा था।
बेवजह परेशान होना, छोटी बातों में हताश होना अब उसके बर्ताव में भी दिखने लगा था।
उस दिन भी वो इसी तरह की परेशानी से बाहर आने की कोशिश में था।
वो उस तपती धूप में चला जा रहा था और अपने मन की बातें खुद ही को सुनाए जा रहा था।
वो कुछ परेशान था, शायद थोड़ा भ्रमित था अपनी बर्ताव को लेकर।
पर ये सोचने का सिलसिला ज़्यादा देर ना चला।
हमेशा की तरह उसने फिर कुछ जल्दी ही नाकाम होने वाली योजना बनाई।
उसने अपने आप को समझाने के उद्देश्य से हाथ हिलाते हुए कुछ बातें मन में दोहराई।
और फिर वो खुद की हाँ में हामी भरते हुए खुशी से कदम जल्दी जल्दी घर की दिशा में चलाने लगा।
इस बार भी वो खुश होकर अपने सपने में भविष्य की अपनी उड़ानों को सजाने लगा। और उस सड़क
को अपने लंबे कदमों से नापते हुए पार कर अपने कमरे की और चल दिया।
अपने कमरे में पहुँचते पहुँचते उसने हल्की सी मुस्कान के साथ ऊपर देखा और धन्यवाद देकर चैन से सो गया।