Hindi Quote in Motivational by Agyat Agyani

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पूजा–पाठ : धर्म की प्रारंभिक अवस्था
✦ Vedānta 2.0 © — 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓣 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓷𝓲

1. प्रारंभिक स्वरूप
परंपरागत मानसिकता में पूजा–पाठ धर्म का आरंभिक और सबसे प्रचलित रूप है।
यह वह अवस्था है जहाँ व्यक्ति बाह्य देवताओं या प्रतीकों की आराधना करता है,
मंत्रोच्चार और विधि–विधान को ही धर्म समझ लेता है।
यह बाल्यकाल की उस सीढ़ी जैसी है,
जहाँ शिशु अपने अनुभवों को बाह्य वस्तुओं में खोजता है,
पर आत्मिक गहराई का द्वार अभी नहीं खुला होता।

2. बाह्य पूजा–पाठ की सीमाएँ
जब कोई व्यक्ति पूजा–पाठ को ही धर्म का पूर्ण स्वरूप मान लेता है,
और जीवनभर उसी एक सीढ़ी पर ठहरा रहता है,
तब उसकी आध्यात्मिक यात्रा रुक जाती है।
पूजनीय वस्तु, पूजन विधि, और पाठ—all जड़ प्रतीक बन जाते हैं;
उनमें न प्रेम की लहर है, न चेतना की ऊष्मा।
धर्म यहाँ अनुभव नहीं रह जाता,
बल्कि आडंबर और स्मृति की पुनरावृत्ति बन जाता है।

3. चैतन्य का अभाव
वेदांत और आधुनिक दर्शन दोनों यही कहते हैं—
सच्चा धर्म वह है जिसमें प्रेम, संवेदना, और गति का संचार हो;
जहाँ चेतना स्वयं में जागती है।
पर यदि पूजा–पाठ केवल विधि और अनुशासन तक सीमित है,
तो वह जड़ता का भाष्य है —
शूद्र भक्ति, जिसमें भय है, पर आत्मिक ज्योति नहीं।
ऐसा व्यक्ति खुद को धार्मिक समझता है,
पर भीतर की ऊर्ध्वता कभी जागती नहीं।
यहीं से वह विज्ञान और विवेक को मूढ़ता समझने लगता है।

4. उद्देश्य और आगे का मार्ग
पूजा–पाठ का असली प्रयोजन है—
मन को समर्पित करना, और आत्मा को परमात्मा की दिशा में मोड़ना।
पर यह तभी फलदायी है जब इससे आगे बढ़ा जाए —
प्रेम, ध्यान और साक्षात्कार की गहराई में।
अन्यथा यह साधना नहीं, एक दैनिक आदत बनकर रह जाती है।

5. निष्कर्ष
पूजा–पाठ धर्म की पहली सीढ़ी है —
माध्यम है, लक्ष्य नहीं।
जब मन इस सीढ़ी को पार करता है,
तभी प्रेम गति बनता है,
और जड़ कर्म चेतन साधना में रूपांतरित होता है।
यहीं से धर्म का आरंभ समाप्त होता है,
और आध्यात्मिक यात्रा प्रारंभ होती है।

वेदांत 2.0 © — : अज्ञात अज्ञानी

Hindi Motivational by Agyat Agyani : 112004623
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