Hindi Quote in Motivational by Vedanta Two Agyat Agyani

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“मार्ग नहीं, अवरोध है सत्य का रहस्य”
मार्ग का मतलब है: लंबी यात्रा, तपस्या, कठिनाई, भटकने की संभावना।
तो जनता को लगता है — “हाँ, अगर मार्ग है तो शायद पहुँचा जा सकता है।”
पर सच्चाई यह है — ईश्वर तक कोई मार्ग है ही नहीं।

क्यों?
क्योंकि मार्ग हमेशा कहीं और ले जाता है।
मार्ग = भविष्य।
मार्ग = अभी से इनकार, कल की प्रतीक्षा।
और ईश्वर कभी “भविष्य” में नहीं, बस “अभी” में है।

इसीलिए जो भी सच्चे लोग आए — कबीर, रैदास, बुद्ध, नानक, कृष्णमूर्ति, ओशो — उन्होंने रास्ते से ज़्यादा अवरोध की बात की।
रैदास अंधे थे, उन्होंने कोई मार्ग नहीं देखा, बस भीतर का अंधापन गिरा।
कबीर कहते रहे, ढोंग-धारणाएँ हटाओ।
बुद्ध ने कहा, वासनाएँ और अज्ञान छोड़ो।
कृष्णमूर्ति ने साफ़ कह दिया — “मार्ग है ही नहीं।”

पर धर्म?
धर्म कभी अवरोध की बात नहीं करता।
क्योंकि अगर अवरोध हटा दिए जाएँ, तो गुरु और धर्म दोनों बेकार हो जाएँ।
इसलिए वे “मार्ग” और “साधन” बेचते हैं।
और जनता खुश — मार्ग है, साधन है, हमें बस पालन करना है।
पर असल में यह बस व्यापार है।

मार्ग नहीं, अवरोध असली मुद्दा है।
मार्ग खुद नहीं बनता, जब अवरोध हटता है तो रास्ता अपने आप खुला दिखने लगता है।
अवरोध = धारणा, मानसिकता, अंधविश्वास, ढोंग।
जो भी इन्हें उजागर करता है, उसे धर्म-विरोधी, नास्तिक, मानवीय-विरोधी कहकर हटा दिया जाता है।

असल सच्चाई बड़ी सरल है:
साधारण जीवन को प्रेम, आनंद, संतोष से जियो।
यही जीवन बिना अवरोध पैदा किए अपने आप उस परम गव्य तक पहुँचा देता है।

“मार्ग” और “साधना” का व्यापार असल में “अवरोध” का व्यापार है।
जब तक मार्ग की कल्पना बेचोगे, अवरोध भी बेचने पड़ेंगे।

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अगर इस हिस्से को एक अध्याय बनाना हो, तो उसका नाम मुझे लगता है:
“मार्ग नहीं, अवरोध है — सत्य का रहस्य”

१. कठोपनिषद (१.२.२३)
“नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो, न मेधया न बहुना श्रुतेन।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यः, तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम्॥”

➝ आत्मा न तो प्रवचन से, न बुद्धि से, न शास्त्र-पठन से मिलता है।
वह तभी प्रकट होता है जब भीतर की तत्परता से वह स्वयं खिलता है।
यानी आत्मा = अचानक फूटी कोपल।

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२. बृहदारण्यक उपनिषद (२.३.६)
“नेति नेति”
➝ सत्य को किसी अंतिम शब्द, रूप या मार्ग में बाँधा नहीं जा सकता।
हर बार जब कोई कहता है “यही है”, तो उपनिषद जवाब देता है — “नहीं, यह भी नहीं।”
यानी ज्ञान कभी अंतिम नहीं, हमेशा खुला हुआ, ताज़ा।

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३. मुण्डक उपनिषद (१.१.४–५)
“द्वे विद्ये वेदितव्ये, परा चैवापरा च।”
➝ ज्ञान दो हैं — अपरा (बाहरी, शास्त्र, साधन) और परा (जीवित, प्रत्यक्ष अनुभव)।
अपरा हमेशा सीमित है; परा वही है जो अभी, यहीं प्रकट होता है।

✍🏻 — 🙏🌸 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓣 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓷𝓲

Hindi Motivational by Vedanta Two Agyat Agyani : 112000954

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