धर्म का असली सार आत्मिक विकास है।
उसके बिना कोई शांति, दया, करुणा, प्रेम, सेवा या मुक्ति टिक ही नहीं सकती।
बिना आत्मिक उत्थान के जो कुछ भी लोग "धार्मिक" कहकर करते हैं—
वह मन की चाल है, बुद्धि का खेल है।
वह ऊपर से सभ्य और सुशोभित लगता है,
लेकिन भीतर वही लालच, हिंसा, वासना, भय और सत्ता की भूख चल रही होती है।
इसलिए धर्म आज ज़्यादातर मुखौटा बन गया है।
वस्त्र बदलना, मंदिर-मस्जिद जाना, मंत्र बोलना,
और फिर वही पुरानी दुनिया की गंदगी जीना।
यही कारण है कि “धर्म-रक्षक” कहलाने वाले लोग
सबसे बड़े व्यापार, अपराध और राजनीति में उलझे हुए हैं।
समाज और सरकार—दोनों की हालत उसी का आईना है।
अगर धर्म सचमुच आत्मिक विकास कर रहा होता,
तो अख़बार और न्यूज़ चैनल बुराई नहीं, शांति की ख़बरों से भरे होते।
पर हुआ उल्टा—
जितना धर्म का प्रचार बढ़ा, उतना ही भय, भ्रष्टाचार और हिंसा भी बढ़ी।
तो असली सवाल यही है:
क्या हम धर्म को वापस आत्मिक विकास की परिभाषा में लाने का साहस रखते हैं,
या बस इसी मुखौटे में जीते रहेंगे?