“अकेलापन “
जिस रोज़ अकेला होता है आदमी
तो वह अकेला नहीं नितांत अकेला होता है
अकेले में अकेला
भीड़ में और अधिक अकेला
जिस रोज़ होता है आदमी सबसे ज़्यादा अकेला
उस रोज़ कोई दरवाज़े के कान नहीं उमेठता
न ही फोन घनघनाता है पल भर
उस रोज़ संदेशों की आँख लग जाती है
मौन का गला नहीं खुलता
और शून्य
अपने ही शून्य में धँसता चला जाता है
जिस रोज़ होता है आदमी स…ब…से ज़्यादा अकेला
उस रोज़ कोई बच्चा गली में खेलता नहीं दिखता
माँएँ धूप में बैठकर
बच्चों के बालों से जुएँ नहीं निकालती
पड़ोस से किलकारी कानों में नहीं पड़ती
और न ही किसी की रसोई में गिलास
हाथ से छूट कर गिरता है
अकेले में सबसे ज़्यादा अकेलापन पसर जाता है उस वक़्त
जब अचानक ठीक हो जाती है
दरवाज़े के चर्राने की आवाज़
दीवार अंतिम रंगीन पपड़ी झाड़ते हुए सफ़ेद हो जाती है
चीटियाँ अपने बिलों से निकलना भूल जाती हैं
और घड़ी की टिकटिक भी शांत हो जाती है एकाएक
इससे ज़्यादा अकेला क्या होगा आदमी
कि सबसे अधिक क़रीब पाने वाले को
ठीक… उसी रोज़
सबसे अधिक व्यस्त पाता है वह
संबंधों की शाख पर टाँका गया एक एक फूल
झरने लगता है उस रोज़
अकेला आदमी सूखी शाख पर सूखा चेहरा लिए
पैर हिलाता रहता है देर तक
और उसकी आँखें निकल जाती हैं ऐसे जंगल को देखने
जहाँ देखने को… जंगल तक नहीं बचता।
🙏🏻
- Umakant