"अंधकार में एक लौ"
गाँव बसतंपुर की एक पुरानी परंपरा थी—जब भी कोई बच्चा बीमार पड़ता, लोग डॉक्टर के पास ले जाने की बजाय "भूत-बाबा" के पास जाते। कहते थे, बाबा मन्त्र पढ़ते ही बीमारी भाग जाती है।
कहानी की शुरुआत होती है 13 साल की एक होशियार लड़की से—नाम था माया। माया शहर से आई थी, अपनी नानी के पास गर्मी की छुट्टियों में। गाँव उसे बहुत अच्छा लगा, पर एक बात उसे बिल्कुल नहीं भाई—लोग हर बीमारी का इलाज झाड़-फूँक से करने लगते।
एक दिन उसके पड़ोस की छोटी सी बच्ची—बुलबुल—तेज़ बुखार में तप रही थी। माया ने बुलबुल की माँ को सलाह दी, “आप इसे अस्पताल क्यों नहीं ले जातीं?”
बुलबुल की माँ बोली, “अरे बच्ची, ये सब शहर में होता होगा। यहाँ तो भूत-बाबा ही सब ठीक करते हैं।”
माया चुप हो गई, लेकिन चैन से बैठ नहीं सकी। उस रात चुपचाप अपने मोबाइल से डॉक्टर अंकल को बुलाया, जो पास के कस्बे में क्लिनिक चलाते थे। डॉक्टर ने बुलबुल का इलाज किया और अगले ही दिन उसका बुखार उतर गया।
गाँव वालों को जब पता चला, तो पहले तो बहुत गुस्सा हुए। “बाबा की जगह किसी और से इलाज? अपशगुन होगा!” लेकिन फिर धीरे-धीरे समझ आने लगा—इलाज मन्त्रों से नहीं, विज्ञान से होता है।
माया की एक छोटी सी कोशिश ने अंधविश्वास के अंधेरे में एक रोशनी की लौ जला दी थी। अब गाँव के लोग जब बीमार पड़ते हैं, तो पहले अस्पताल जाते हैं—भूत-बाबा अब सिर्फ़ एक कहानी बनकर रह गए हैं।
सीख: अंधविश्वास से अंधकार फैलता है, और ज्ञान से उजाला होता है।