मन के सारे शहर छोड़कर, देखो न, मैं लौट आई हूँ; छल की काया को तोड़कर, देखो न, मैं लौट आई हूँ।
मसले, किस्से, कहानी लिए, तल्ख हुई जुबानी लिए, मुट्ठी भर अदावत की छींटे, खोखली तारीफों की ईंटें, थके कंधों पर लादे, देखो न, मैं लौट आई हूँ, खामोशी की लेकर नादें देखो न, मैं लौट आई हूँ। बेनकाब हुए चेहरों की लकीरें, टेढ़ी मेढ़ी ज़िन्दगी की तहरीरें, हथेलियों की रगड़ में मिटाती, गलतियों को हवा में उड़ाती, समझदार, सयानी सी होकर, देखो न, मैं लौट आई हूँ, ज़िद की माटी को धोकर, देखो न, मैं लौट आई हूँ। मृगतृष्णा की ललक तोड़कर, मिथ्या की राहों को छोड़कर, सत्य के सूरज का बोध कर मोह चक्र का हठ विरोध कर तुमसे छूटी, तुम तक आई, देखो न, मैं लौट आई हूँ, अतीत को सांकल चढ़ाई, देखो न, मैं लौट आई हूँ।