मैं और मेरे अह्सास
उजड़े हुए शहरो में आशियाना न ढूंढ़ा कर l
इन्सानों के चहरों को नजदीक से पढ़ा कर ll
जो होगा देखा जायेगा कल की चिता छोड़कर l
जीए जा मस्ती में फ़िक्र को हवा में उड़ा कर ll
मुक़द्दर में सुहानी सुबह है यही सोचकर आज l
चरागों को बुझाकर चैन की नींद लिया कर ll
सखी
दर्शिता बाबूभाई शाह