मैं और मेरे अह्सास

निगाहें चार होते ही चाँद का टुकड़ा शर्मा गया l
सतत इशारों से और किनायों से घबरा गया ll

अल्फाजों से ग़ज़लें रात भर संवरती रहीं और l
महफ़िलोंमें हसीन सुराहियों को छलका गया ll

एक आवाज़ सुनने के लिए कबसे तरस रहे हैं l
औ उसका देर तक ख़ामोश रहना तड़पा गया ll
सखी
दर्शिता बाबूभाई शाह

- Darshita Babubhai Shah

Hindi Poem by Darshita Babubhai Shah : 111948788
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