मैं लिख दूं अल्फाज तुम्हे
उसे खुद तुम पढ़ पाओगे क्या ?
मैं कह दूं कोई ख्वाब तुम्हे
तो क्या कभी हकीकत बन पाओगे क्या ?
मंजिल तो अंजान ही है एक दूसरे से
उन राहों से कभी गुजर पाओगे क्या ?
मैं कह दूं कोरा कागज़ तुम्हे
तो नीली स्याही बनकर बिखर जाओगे क्या?
मैं कह दूं कोई एहसास तुम्हे
तो कोई याद बनकर मुझसे लिपट जाओगे क्या?
मैं दे दूं पूरा आसमां तुम्हे
तो चांद बनकर मेरे छत पर दिख जाओगे क्या ?
माना बेख्याली के एहसास ही है
पर फिर भी मेरे रूठ जाने पर मनाओगे क्या?
शायरी या कोई शेर ना सही
मेरे कविता का कोई संग्रह बन पाओगे क्या?
वक्त के कटघरे में हिसाब सबका होता है
पर मेरे साथ खुली किताब बन मुस्कुराओगे क्या ?
-Manshi K