पगडंडियों के राही हम थे
गांव से चल कर शहर में ठहरे आजकल थे
परिंदों सा मकान था मेरा शहर में
कभी इधर तो कभी उधर
दर बदर भटक यूं रहे थे......
सपनों की चाहत मुझे खींच ले गया था उस ओर
जहां अपने सारे गैर बन रहे थे
चकाचौंध की दुनियां में सहम सी गई थी मैं
वक्त ने मुझे मेरे द्वार आकर कुछ तो समझाया था
-Manshi K