“चलते हुए कहानियाँ बनी—मिलने की, साथ में रोने की और दूर तक जाते हुए देखने की। इन कहानियों में प्रेमचंद का कोई पात्र नहीं था जो कहानी ख़त्म होते ही ग़ायब हो जाएगा। यह लंबे और कभी न ख़त्म होने वाले रास्तों के पथिक थे, जिनको चलते जाना था। साथ चलते हुए लोगों के चेहरे देखते हुए, उनकी असहायता को अपने भीतर भरने और देर तक घुप्प दुनिया के मलिन अँधेरे में झाँकते रहते हुए।”
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