“मुमकिन है वो दिन आए कि दुनिया मुझे समझे”
मुमकिन है वो दिन आए कि दुनिया मुझे समझे
लाजिम नहीं हर शख़्स ही अच्छा मुझे समझे
है कोई यहाँ शहर में ऐसा कि जिसे मैं
अपना न कहूँ और वो अपना मुझे समझे
हर-चंद मिले साथ रहे असल-ए-बसीरत
कुछ अहल-ए-बसीरत थे कि तन्हा मुझे समझे
मैं आज सर-ए-आतिश-ए-नमरुद खडा हूँ
अब देखिए ये खल्क -ए-खुदा क्या मुझे समझे
रसा चुगताई
❤️