“उलझ करके तिरी ज़ुल्फ़ों में यूँ आबाद हो जाउं
कि जैसे लखनऊ का मैं अमीनाबाद हो जाउं
मैं जमुना की तरह तन्हा निहारूँ ताज को कब तक
कोई गंगा मिले तो में इलाहाबाद हो जाऊँ
तेरी पाकीज़गी के बस जरा सा पास आना है
अयोध्या तू रहे मैं मैं सिर्फ़ फ़ैज़ाबाद हो जाऊँ
ग़ज़ल कहने लगा हूं मैं जरा सा मुस्कुरा तो दो
यही तो चाहती थी तुम कि मैं बरबाद हो जाऊ
न जाने किसकी बाहों में तुम्हारी ज़िंदगी गुज़रे,
मुझे इतना ना पड लेना कि तुमको याद हो जाउं।
भरोसे को जताने का यही है रास्ता बाकी,
तुझे बरबाद करके खुद भी मैं बरबाद हो जाउ
🖋️ अशरफ़ जहांगीर
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