नज़रों की भाषा............................
कोई सपना, कई ख्वाब नज़रों में कैद है,
छुपे है कई अक्स इसमें सब अपने है, नहीं कोई गैर है,
नोंचना चाहते है उसे जो बर्दाशत नहीं होता,
आंसू बन कर बह गया सब कुछ,
ना जाने क्या रह गया जो कभी - कभी है,
नज़रों में गड़ता........................
कमज़ोर नज़रों का बहाना बना कर,
आँखों में खोपा चढ़ा लिया,
साफ करते रहे एैनक को हम,
कूड़ा तो आँखों में ही रह गया...........................
नज़रिए के फर्क को समझाते रहे,
हम नासमझ होशियारों को आँखें पढ़ना सिखाते रहे,
हम खुली आँखों की बाते भी ना समझ सके,
वो तो हमें इशारों में ही मात दे गए..............................
स्वरचित
राशी शर्मा