ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥ -वृहदारण्यक उपनिषद
अर्थ : अर्थात वह सच्चिदानंदघन परब्रह्म पुरुषोत्तम परमात्मा सभी प्रकार से सदा सर्वदा परिपूर्ण है। यह जगत भी उस परब्रह्म से पूर्ण ही है, क्योंकि यह पूर्ण उस पूर्ण पुरुषोत्तम से ही उत्पन्न हुआ है। इस प्रकार परब्रह्म की पूर्णता से जगत पूर्ण होने पर भी वह परब्रह्म परिपूर्ण है। उस पूर्ण में से पूर्ण को निकाल देने पर भी वह पूर्ण ही शेष रहता है।
प्रत्येक पूर्ण है। चाहे वह व्यक्ति हो, जगत हो, पत्थर, वृक्ष या अन्य कोई ब्रह्मांड हो, क्योंकि उस पूर्ण से ही सभी की उत्पत्ति हुई है। स्वयं की पूर्णता को प्राप्त करने के लिए ध्यान जरूरी है। जिस तरह एक बीज खिलकर वृक्ष बनकर हजारों बीजों में बदल जाता है, वैसी ही मनुष्य की भी गति है। यह संसार उल्टे वृक्ष के समान है। व्यक्ति के मस्तिष्क में उसकी पूर्णता की जड़ें हैं। ऐसा उपनिषदों में लिखा है।
प्रस्तुतकर्ता:डॉ. भैरवसिंह राओल