एक पत्र ज़िंदगी को,
हेलो ज़िंदगी, कैसी हो तुम ? बहुत दिनों से तुमसे मुलाक़ात नहीं हो पाई । मैं तुम्हें जीने की लालसा में इतनी व्यस्त हो गई कि मुझे समझ ही नहीं आया कि मैं तुम्हें जी रही हूँ या काट रही हूँ ? मैंने सुकून से जीने की चाह में सुकून ही गँवा दिया । वैसे तुम भी कम आततायी नहीं हो । काटने का ग़ुर तो तुमने ही सिखाया है । पैदा होते ही नाभिनाल काट दी, हर जन्मदिन पर केक कटवाती हो, मशहूर हुई तो रिबन कटवा दिए, बुढ़ापा आया तो तन्हाई काट गई, शिकायत की तो अपनों की ज़ुबान ने काट लिया और अब न जाने कब तुम साँसों की डोर काट दो ? बहुत हुआ तुम्हारा काटना , अब बस करो ! इतना होने पर भी मैं तुम्हें काटना नहीं जीना चाहती हूँ ।
तुम्हारी अपनी
😊 - उषा जरवाल ‘एक उन्मुक्त पंछी’