# धर्म, झूठ और सत्य — एक सीधा उद्घोष
**वेदान्त 2.0 · बियॉन्ड माइंड & इल्यूजन**
**वेदान्त 2.0 — मन से परे, माया से आगे**
🙏🌸 **अज्ञात अज्ञानी**
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## मुख्य उद्घोष
झूठ खरीदा जा सकता है—इसलिए उसके लिए पैसा देना पड़ता है।
झूठी किताबें, टिकट, कार्यक्रम, विशेष प्रवचन, संस्थाएँ—सब धन से चलते हैं, क्योंकि वहाँ झूठ की माँग है।
99% चीज़ें धन से खरीदी-बेची जा सकती हैं, लेकिन **धर्म न धन से चलता है, न पद से**।
धन और पद धर्म के नाम पर केवल अंधकार बढ़ाते हैं।
आज जो धर्म के नाम पर चल रहा है, वह सनातन नहीं—वह **पूर्व-बेवकूफी का विस्तार** है।
अगर सत्य बाज़ार में बिकने लगे, तो सूर्योदय की दिशा बदल जाएगी—क्योंकि **सत्य बिकता नहीं**।
**सत्य तुम्हारे भीतर है।**
बाहर केवल शरीर की व्यवस्था है—भोजन, साधन, सुविधा।
धर्म बाहर नहीं है, कोई प्रदर्शन नहीं है। कोई प्रवचन सत्य नहीं देता—देना असंभव है।
प्रवचन तुम्हारी मूर्खता गिराने के लिए होते हैं, लेकिन धार्मिक व्यवस्था **मूर्खता बेचती है** और तुम उसे श्रद्धा कहकर खरीदते हो।
**जिसका मोल है, माप है, तोल है—वह असत्य, अज्ञान और अंधकार है।**
सत्य बीज रूप में भीतर बैठा है। समस्या अज्ञान नहीं—**समस्या भीतर भरा कचरा है**।
अज्ञान कहता है: “मैं नहीं जानता।”
कचरा कहता है: “मैं गुरु हूँ, भक्त हूँ, धार्मिक हूँ।”
यह अज्ञान नहीं—**वायरस है**।
भीड़, संस्था, गुरु—कभी सत्य नहीं दे सकते।
अगर वे सच में कचरा हटाएँ, तो भीड़, संस्था और गुरु—**तीनों समाप्त हो जाएँगे**।
**धर्म पूजा-पाठ, मंदिर, मंत्र, साधना नहीं है।**
धर्म है—**भीतर जाना और स्वयं प्रकाशित होना**।
जो तुम्हें तुम्हारे भीतर ले जाए—वही गुरु है।
अगर केवल “राधे-राधे” जपने से सब ठीक होता, तो **वेद, गीता, उपनिषद लिखने की क्या ज़रूरत थी**? विज्ञान की क्या ज़रूरत थी?
काले, पीले, सफ़ेद वस्त्र सत्य नहीं बनाते।
संस्थाएँ हिंसा, चोरी, बलात्कार नहीं रोकतीं—वे **अनीति का विस्तार** करती हैं।
**सत्य धर्म अदृश्य है।** वह समझ है, कर्मकांड नहीं।
मंत्र, मार्ग, साधन—अधिकांशतः असत्य का फैलाव हैं।
**धर्म को व्यापार मत बनाओ। प्रसिद्धि और पद मत बनाओ।**
भीड़ झूठ चाहती है—सत्य लाखों में एक ही माँगता है।
जिसे सत्य चाहिए, उसे कहीं जाना नहीं पड़ता, कुछ मानना नहीं पड़ता।
**बस भीतर जाकर अपने झूठे ज्ञान, धारणाएँ, पहचानें डिलीट करनी पड़ती हैं—फ़ॉर्मेट।**
तभी भीतर का बीज खिलेगा।
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## शास्त्रीय प्रमाण (बिना टीका)
| क्र. | शास्त्र | उद्धरण | सार |
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| 1 | कठोपनिषद् (1.2.23) | नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन | आत्मा प्रवचन से नहीं मिलता। |
| 2 | मुण्डक उपनिषद् (1.2.12) | परीक्ष्य लोकान् कर्मचितान्... | कर्म से सत्य नहीं। |
| 3 | मुण्डक उपनिषद् (1.1.4) | द्वे विद्ये वेदितव्ये | अपरा बिकती, परा नहीं। |
| 4 | बृहदारण्यक (3.9.26) | नेति नेति | सत्य बताया नहीं जा सकता। |
| 5 | छांदोग्य (7.1.3) | नाम एवैतदुपासीत | जप प्रारंभ, सिद्धि नहीं। |
| 6 | गीता (2.46) | यावानर्थ उदपाने... | बोध में कर्मकांड व्यर्थ। |
| 7 | गीता (18.66) | सर्वधर्मान् परित्यज्य | सब धर्म छोड़ो। |
| 8 | अवधूत गीता (1.1) | न मे बन्धो न मोक्षो | पाने-बेचने का अंत। |
| 9 | अष्टावक्र (1.2) | मुक्ताभिमानी मुक्तो हि | स्वयं-बोध ही मुक्ति। |
| 10 | ऋग्वेद (10.129) | को अद्धा वेद क इह प्रवोचत् | सत्य का प्रचार असंभव। |
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## सारांश
**जो सिखाया जाए, बेचा जाए, जिसका अनुष्ठान हो—वह धर्म नहीं। धर्म केवल बोध है।**
**वेदान्त 2.0 · अज्ञात अज्ञानी**
🙏🌸 *सत्य बिकता नहीं—भीतर जागो।