कंपकंपी लिए ,बहे पछुआ बयार।
गर्जन के संग संग वर्षा की बौछार।
घर घर सन्नाटा दुबके सब ठंड में।
घूरे की आग ही जीवन का आसार।
सूरज भी गायब है बादल का राज।
कुहासे की परत में लिपटा घरवार।
काम काज के बिना बैठे हैं बेकार।
क्षण क्षण बदले मौसम का मिजाज।
ठडंक में वर्षात का असीम है मार।
*मुक्तेश्वर
-Mukteshwar Prasad Singh