मैं और मेरे अह्सास
किस मृगतृष्णा मे लोग जी रहे हैं पता नहीं l
हररोज हरलम्हा जहर पी रहे हैं पता नहीं ll
एक पल दूसरे पल पर भारी पड़ रहा है l
साँस रुई से जिंदगी सी रहे हैं पता नहीं ll
अन्जामे ज़िंदगी मौत ही है आखिरकर l
इतना ज्यादा लोग बी रहे हैं पता नहीं ll
१२ -१-२०२२ सखी
दर्शिता बाबूभाई शाह