क्यों बटूँ क्यों , बाँटू मै... ! बँटकर भी क्या पाया है , शिकायते ,अवहेलना ,अपमान ही तो, हिस्से आया | बँटकर बिखरी ही तो हूँ कहो कहाँ निखार आया है? न खुद पूरी हूँ न पूर्णता को ही पाया है , बेहतरी बँटने मे कहाँ हिस्से को काटकर , अपने अस्तित्व बोटी -बोटी छाँटकर , क्या इसीलिए जीवन पाया है ? या फिर यही जीवन कहाया है ? नही ! नही चाहिए जीवन वह अब बँटना मंजूर नही , जितनी हूँ जरूरी हूँ , अपने हिस्से मे पूरी हूँ | नही बाँटना खुद को तुम यदि आना चाहो जीवन मे ,देकर खुद को तुम मत आना ,
जीवन मे किसी को मत लाना |
-Ruchi Dixit